मैंने सात माह के भीतर ही मानसिक स्वास्थ्य, अवसाद और मानसिक यातना के बारे में 108 लोगों को प्रशिक्षित किया।
मनिका मजूमदार
उस समय मेरी उम्र दस या ग्यारह वर्ष की थी, जब मेरी मां ने मेरे छोटे भाई को जन्म दिया। भाई के जन्म के बाद वह तकरीबन दो महीने तक बीमार रहीं। हमारी पारिवारिक स्थिति अच्छी नहीं थी। मैं पश्चिम बंगाल की रहने वाली हूं। मैं डेढ़ वर्ष की थी, जब मेरे पिता बांग्लादेश से पलायन करके परिवार सहित पश्चिम बंगाल आए। मेरे पिता रूढ़िवादी थे, वह अक्सर मां से लड़ाई करते रहते थे। वह छोटे-छोटे काम करते थे, जिससे उनका अपना खर्च भी नहीं निकल पाता था। उनकी कमाई से घर चलाने में कोई सहयोग नहीं मिल रहा था। जबकि मेरी मां तीन हजार रुपये की तनख्वाह पर एक नर्सिंग होम में नर्स के रूप में कार्यरत थीं। बीमारी से उबरने के बाद मेरी मां ने दोबारा क्लिनिक जाना शुरू कर दिया, और मुझसे छोटे भाई का ध्यान रखने को कहा। उस उम्र में लोग मस्ती करते हैं, बाहर खेलते हैं, लेकिन मुझे जो करना था, उसने मेरे दिमाग पर जबर्दस्त दबाव डाला। मैं कभी एक सामान्य बच्चे की तरह जिंदगी नहीं जी सकती थी। इससे मैं परेशान थी, क्योंकि भाई की देखभाल करने और घर के काम करने के लिए कोई न होने के कारण, मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी। मेरा संघर्ष बदतर था, क्योंकि मेरे पिता ने बाहर जाने या किसी भी तरह की गतिविधि पर प्रतिबंध लगा रखा था। छोटी-छोटी गलतियों पर वह मेरे साथ दुर्व्यवहार करते थे। उस समय मुझे एहसास हुआ कि मेरी मां किस मानसिक तनाव से गुजर रही थीं। इस तरह करीब सात साल बाद मैंने मां की मर्जी के बिना शादी कर ली।
मेरे पति की साइकिल-मरम्मत करने की दुकान थी। शादी के बाद मैंने उनसे सामाजिक कार्यों में अपनी भागीदारी को लेकर बात की, तो वह तैयार हो गए। शुरुआत में मैं एक महिला समिति में शामिल हो गई और जल्द ही नगरपालिका द्वारा संचालित एक स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) की प्रमुख बन गई। एसएचजी ने उन महिलाओं को कढ़ाई, सिलाई, ब्यूटीशियन आदि का प्रशिक्षण दिया था, ताकि वे अपने पैरों पर खड़ी होकर कहीं काम कर सकें। मेरा काम इन महिलाओं से पैसे इकट्ठा करना था। इसके बाद मैं कोलकाता के एक एनजीओ के संपर्क में आई, जो पश्चिम बंगाल सरकार के साथ काम करता है। यह संस्था अवसाद से पीड़ित लोगों की मानसिक देखभाल करने के साथ उनके पुनर्वास की भी व्यवस्था करती है। एनजीओ ऐसी महिलाओं की तलाश कर रहा था, जो मानसिक-अक्षम लोगों की मदद कर सकें। उनसे मिलकर मुझे महसूस हुआ कि मैं उसका हिस्सा बन चुकी थी। मैंने सात माह के भीतर ही मानसिक स्वास्थ्य, अवसाद और मानसिक यातना के बारे में 108 लोगों को प्रशिक्षित किया। पहली बार मैंने महसूस किया कि जीवन में मुझे एक दिशा और पेशा मिला है, जहां लोगों के विचारों को महत्व दिया जाता है। पहला सबक यह था कि हमें अपने स्वयं के दर्द का एहसास करना चाहिए और अगर मैं ऐसा नहीं कर सकती, तो मैं उन लोगों की मदद कैसे कर सकती हूं, जो मानसिक तनाव से गुजर रहे हैं? धीरे-धीरे कार्य करते हुए मैं सामुदायिक स्तर पर मनोरोगियों की पहली प्रशिक्षित काउंसलर बनीं। मेरा काम स्थानीय अस्पताल का दौरा करना और डोर-टू-डोर अभियान चलाना था, ताकि लोगों को मानसिक अक्षमताओं के बारे में जागरूक किया जा सके और इससे पीड़ित लोगों की पहचान की जा सके। मैंने स्थानीय निकायों के साथ मिलकर छोटे-छोटे मनोचिकित्सा केंद्र शुरू किए। इस पूरी यात्रा के दौरान मेरे पति मेरे साथ खड़े रहे। पिछले दस वर्षों में मैंने करीब 3,500 गरीब लोगों को अवसाद से उबरने में मदद की है।
-विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.