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दुर्गम रास्ते पार करके आदिवासी बच्चों को पढ़ाने जाती हैं सुधा कुमारी

Published - Fri 28, Feb 2020

कहते हैं कि अगर व्यक्ति में दृढ़ इच्छा हो तो वह कठिन से कठिन से कार्य भी आसानी से पूरा कर सकता है। कुछ ऐसी ही दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ अपना काम रही हैं केरल में तिरुवनंतपुरम जिले के अंबोरी गांव की रहने वाली के. आर.  सुधाकुमारी। वह दुर्गम रास्ते पार करके आदिवासी बच्चों को सुगम शिक्षा दे रहीं हैं और अपने इस काम को पूरी लगन, ईमानदारी और तन्मयता से पूरा कर रही हैं।

K R SUDHAKUMARI

नई दिल्ली। कहते हैं कि अगर व्यक्ति में दृढ़ इच्छा हो तो वह कठिन से कठिन से कार्य भी आसानी से पूरा कर सकता है। कुछ ऐसी ही दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ अपना काम रही हैं केरल में तिरुवनंतपुरम जिले के अंबोरी गांव की रहने वाली के. आर.  सुधाकुमारी। वह दुर्गम रास्ते पार करके आदिवासी बच्चों को सुगम शिक्षा दे रहीं हैं और अपने इस काम को पूरी लगन, ईमानदारी और तन्मयता से पूरा कर रही हैं। उनके अनुसार एक शिक्षक के रूप में मेरा जीवन आसान नहीं रहा है। मेरी प्रतिदिन की यात्रा कई जोखिम उठाकर पूरी होती है। सरकारी वेतन के अलावा मेरी कोई आय नहीं है। कभी-कभी तो मुझे स्कूल चलाने के लिए अपने वेतन से खर्च करना पड़ता है। अपने स्कूल तक पहुंचने के लिए आधी यात्रा मुझे स्कूटर और फिर नाव के सहारे तय करनी पड़ती है। 

मेरे गुरु ने मुझे उन बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया, जिनकी पहुंच स्कूलों तक नहीं थी
आदिवासी बच्चों को पढ़ाने के लिए मुझे मेरे गुरु ने प्रेरित किया। वे 1985-86 में केरल में पुस्तकालय आंदोलन के जनक थे। उन्होंने आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने के लिए काफी काम किया। मेरे गुरु ने मुझसे उन बच्चों को पढ़ाने के लिए गांवों में जाने को प्रेरित किया, जिनकी पहुंच स्कूलों तक नहीं थी। उनकी बात मानकर जब मैंने गांवों में जाना शुरू किया, तो मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती माता-पिता को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए मनाने की थी। बच्चों के परिजन मुझसे डरे हुए से रहते थे। वे बच्चों को मुझसे दूर रखते थे, और खुद भी छिपने की कोशिश करते थे। मुझे उनके साथ बैठकर भोजन करना और बच्चों को स्कूल भेजने के लिए उनका विश्वास हासिल करना था। जंगलों के बीच खड़ी चढ़ाई पार करते, जंगली हाथियों के भय का सामना करते हुए मैंने वर्ष 2003 में कुन्नथुमाला में पढ़ाना शुरू किया था। वहां कोई सड़क नहीं थी और मुझे पत्थरों के बीच बने रास्ते से जाना होता था। 

पहले स्कूटी तो फिर नाव से सफर करके पहुंचती हूं स्कूल
सुबह मैं अपने घर से तिरुवनंतपुरम की कुंबिक्कल कदावु नदी के तट तक एक स्कूटी से जाती हूं। फिर एक नाव के सहारे नदी पारकर, मुझे चार किमी कुन्नथुमाला की पहाड़ियों से गुजरना होता है। इस स्कूल में आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं। हालांकि यह दुर्गम जगह पर मौजूद है। पर मैं उन्हें अपना बच्चा मानती हूं, ऐसे में उनकी भलाई के लिए उन्हें पढ़ाना और उनकी देखभाल करना मेरा कर्तव्य है। ऐसे कई लोग हैं, जो छात्रों के लिए भोजन व नाश्ते का प्रबंध करवाते हैं। बैग, किताबें और स्टेशनरी भी सबके सहयोग से ही उपलब्ध हो जाती है। पिछले 17 साल से मैं कुन्नथुमाला स्कूल में पढ़ा रही हूं। ढलती उम्र के साथ अब चलने-फिरने में परेशानी होती है, क्योंकि रास्ता लंबा है। लेकिन मैं तभी पढ़ाना बंद करूंगी, जिस दिन मेरे हाथ-पैर हिलने-डुलने बंद जाएंगे। मुझे स्थानीय स्तर पर कई सारे पुरस्कार मिले हैं, पर मेरा असली पुरस्कार वे बच्चे हैं, जो पढ़ाई करके अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं। 

स्कूल में अकेली शिक्षिका, अब बेटा भी कर रहा मदद
स्कूल में अकेली शिक्षिका होने के चलते अहम चुनौती यह है कि मैं कक्षा एक से चार तक की प्रभारी हूं। कई बार पंचायत या ब्लॉक बैठकों में भी जाना होता है। मुझे कभी-कभी लगता है कि यहां एक और शिक्षक रखने से मदद मिलेगी। मेरे बेटे ने प्रशिक्षित शिक्षक का प्रमाणपत्र (टीटीसी) पूरा कर लिया है। अब कभी-कभी वह पढ़ाने के लिए भी आता है। इससे मेरी मुश्किलें थोड़ी आसान हुई है। मेरे हाथ में केवल एक छड़ी होती है। स्कूल आने वाले आदिवासी बच्चे रास्ते में मेरे साथ जुड़ते जाते हैं और फिर हम सब कुन्नथुमाला में कनी आदिवासी बस्ती के पास स्थित स्कूल में इकट्ठे होते हैं। स्कूल से निकलने वाले कुछ छात्रों ने टीटीसी किया है, तो कुछ ने बीएससी किया है और कुछ ने सरकारी नौकरी हासिल की है। जब मैंने स्कूल ज्वाइन किया था, तब एक भी ऐसी छात्रा नहीं थी, जिसने 10वीं कक्षा पास की हो। पर अब पढ़ाई करने वाली छात्राएं 10वीं की परीक्षा पास करती हैं। मेरा दिन सुबह सात बजे से शुरू होकर रात को खत्म होता है।