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बच्चों को यौन दुर्व्यवहार के बारे में जागरूक कर रहीं हैं मेघा

Published - Fri 13, Mar 2020

जिस उम्र में कोर्स पूरा करने के बाद कोई भी छात्र-छात्रा या शोधार्थी नौकरी करने के बारे में सोचते हैं वहीं मेघा भाटिया ने इससे इतर ऐसे बच्चों को जागरूक करने का बीड़ा उठाया। जिनके साथ यौन दुर्व्यवहार हुआ हो।

नई दिल्ली। जिस उम्र में कोर्स पूरा करने के बाद कोई भी छात्र-छात्रा या शोधार्थी नौकरी करने के बारे में सोचते हैं वहीं मेघा भाटिया ने इससे इतर ऐसे बच्चों को जागरूक करने का बीड़ा उठाया। जिनके साथ यौन दुर्व्यवहार हुआ हो। उसके बाद उन्होंने अपना एक संगठन शुरू किया। इसके जरिए वह स्कूल आदि में जाकर बच्चों को गुड टच और बैड टच के बारे में बताती हैं। अपने इस काम से उन्हें बेहद सुकून मिलता है क्योंकि मेघा ने हमेशा अपने दिल की सुनी है।

बच्चों की करती थीं मदद

बतौर मेघा दिल्ली में कानून की पढ़ाई करने के दौरान मैं, दुष्कर्म पीड़ित बच्चों के मामलों पर एक प्रोजेक्ट बना रही थी। मैं उनसे संपर्क करती थी और उनके पास जाकर आपबीती सुनती थी। मैं उनकी मदद करना चाहती थी, लेकिन तब मैं पढ़ रही थी और मेरे पास उनका केस लड़ने के लिए आवश्यक कौशल की कमी थी। कानून की पढ़ाई करने के बाद मैंने मानवाधिकारों के लिए काम करने के बारे में सोचा। इसके बाद मैंने मानवाधिकार में एलएलएम करने के लिए यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में प्रवेश के लिए आवेदन किया। इसके बाद प्रवेश मिलने पर वहां चली गई। लंदन में यमन संकट, सीरियाई संकट जैसे मुद्दों पर बच्चों के अधिकारों के लिए अभियान चलाने के बाद, मैंने महसूस किया कि बच्चों के खिलाफ हिंसा को पूरी तरह समाप्त करने की जरूरत है। बाल यौन उत्पीड़न की रोकथाम पर मेरे शोध ने मुझे भारत में इस विषय पर काम करने की आवश्यकता का एहसास कराया। कई अनुभवों, कहानियां सुनने और शोध सार पढ़ने के बाद मेरे भीतर हमारी आवाज संगठन बनाने का जज्बा आया।

केवल अपने मन की सुनी, लंदन से भारत आई

जब मेरे जैसे अन्य लोग नौकरियों के लिए आवेदन कर रहे थे और बेहतर कॉरपोरेट में करियर के विकल्प चुन रहे थे, उस वक्त मैं बच्चों के लिए काम करने की तैयारी में लगी थी। लोगों ने मुझे भी इस सबके बजाय कॉरपोरेट में नौकरी करने और अच्छा पैसा कमाने के लिए कहा। कुछ लोग कहते थे कि मेरी उम्र कम है, मुझे पहले अनुभव लेना चाहिए। लेकिन मैंने उनकी न सुनी। मैंने अपने दिल की सुनी और एक ऐसा संगठन शुरू करने निर्णय लिया, जो बच्चों को सशक्त बनाने, उत्पीड़ितों की पहचान करने और उनकी आवाज उठाने में मदद करे। इसके बाद मैं लंदन से भारत वापस आई और एक टीम बनानी शुरू कर दी। 

बच्चों को जागरूक करने के लिए अनुमति मुश्किल से मिलती थी

वकीलों, मनोवैज्ञानिकों, शिक्षकों व छात्रों के संयुक्त प्रयास से बनी टीम का काम स्कूलों में जाकर अनुमति लेना और बच्चों के लिए कार्यशाला आयोजित करना था। लेकिन इसमें परेशानियां आने लगीं। कई बार स्कूल वाले सहमत नहीं होते, तो कई बार केवल लड़कियों के लिए कार्यशाला आयोजित करने की अनुमति मिलती थी। माता-पिता इस मुद्दे के बारे में बात करने में संकोच करते थे। वे कहते थे कि इस तरह की चीजें हमारे समाज में नहीं होती हैं। वे इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि बाल यौन शोषण के अधिकतर मामलों में अपराधी ज्ञात व्यक्ति होता है। पिछले कुछ साल में हमने लंबा सफर तय किया है। पहले हम स्कूलों से अनुमति लेते थे, अब स्कूल हमें इन कार्यशालाओं के संचालन के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। स्वयंसेवकों की एक शृंखला के माध्यम से यह वास्तविकता बन गई है, जिन्होंने दिन-रात नि:स्वार्थ भाव से काम किया। संगठन ने विभिन्न तरीके से कार्यशालाओं का आयोजन कर करीब पंद्रह हजार से ज्यादा बच्चों को प्रशिक्षित किया है। हमने दुर्व्यवहार को लेकर शिक्षकों को प्रशिक्षित किया है। कार्यशालाओं में बच्चों को यौन दुर्व्यवहार, गुड टच-बैड टच के बारे में न सिर्फ बताया जाता है बल्कि, उनको विश्वास दिलाया जाता है कि हम उनकी सहायता हमेशा करेंगे। जब बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार किया जाता है, तो उनकी आवाजें अकसर समाज द्वारा मौन कर दी जाती है। हमें बच्चों की आवाज सुनने के लिए उनके साथ जुड़ना होगा। इसलिए, मैंने बच्चों को एक मंच देने का प्रयास किया है, जहां वे बिना किसी रोकटोक के अपनी आवाज उठा सकते हैं। हम अब देश के विभिन्न राज्यों के साथ वैश्विक स्तर पर ऐसी कार्यशालाएं आयोजित करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। मेरा मानना है कि स्वयं सुरक्षा के ज्ञान को हर एक बच्चे तक पहुंचाने की जरूरत है।