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आदिवासी महिलाओं को बना रहीं आत्मनिर्भर

Published - Fri 20, Mar 2020

पडाला भूदेवी आदिवासी महिलाओं को आत्मनिर्भर बना रही हैं। उन्हें इस काम की प्रेरणा अपने पिता से मिली, जो आदिवासी लोगों की वित्तीय स्वतंत्रता, भूमि अधिकार, पोषक आहार और चिकित्सा जैसी सुविधाओं की लड़ाई लड़ रहे थे।

padala bhudevi

नई दिल्ली। नारी सशक्तीकरण पुरस्कार 2020 से सम्मानित पडाला भूदेवी आदिवासी महिलाओं को जागरूक कर रही हैं। उनके अनुसार मेरे पिता ने वर्ष 1996 में आदिवासी लोगों के लिए वित्तीय स्वतंत्रता, भूमि अधिकार, पोषक आहार और चिकित्सा जैसी सुविधाओं की लड़ाई के लिए आदिवासी विकास संघ शुरू किया। मैं अपने पिता की विचारधारा को आगे बढ़ा रही हूं, और आदिवासियों के विकास के लिए प्रयासरत हूं। मैं तेलंगाना के श्रीकाकुलम जिले की रहने वाली हूं। मेरे गांव के आसपास का इलाका समस्याओं से घिरा हुआ था। सरकारी संरक्षण व सहायता की उपलब्धता न होने के कारण आदिवासियों के पास भूमि दस्तावेज न के बराबर थे, जिसके चलते कई की जमीन पर जबरन कब्जे जैसे कई मामले सामने आए। जागरूकता के अभाव में ​बहुत सारे स्थायी निवासियों ने परिस्थितियों के आगे हार मान ली। लेकिन मेरे पिता ने इन समस्याओं का सामना करने का निर्णय लिया। अपने संगठन के माध्यम से उन्होंने बहुत सारे आदिवासियों को अपने साथ जोड़ा और समाधान के लिए आवाज उठाने लगे। इसके बाद अधिकारियों ने इस इलाके पर ध्यान देना शुरू किया। 

तीन बेटियां होने पर शुरू हुआ मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न 

उस समय मेरी उम्र करीब ग्यारह वर्ष रही होगी, जब मेरा विवाह पास के ही एक गांव में हो गया। बेटे की चाह में तीन बेटियों के जन्म के बाद पति और ससुराल वालों ने मेरा मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न करना शुरू कर दिया। कुछ दिन यह यातना झेलने के बाद आखिकार एक दिन मैं अपनी तीन बेटियों के साथ अपने मायके लौट आई और दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करना शुरू कर दिया। मेरे पिता चाहते थे कि मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र रहूं। अंततः उन्होंने मुझे अपने संगठन में एक सक्रिय सदस्य के रूप में स्थान दिया। 

पिता के निधन के बाद उनकी विरासत संभाली

वर्ष 2007 में, जब उनका निधन हो गया, तो संगठन के काम की जिम्मेदारी मुझे संभालनी पड़ी। मैंने महसूस किया कि गांवों की समस्या को दूर से हल नहीं किया जा सकता है, इसलिए मैंने गांवों में घूमना शुरू कर दिया और तीन मंडलों में 62 गांवों की यात्रा की। मुझे तीन साल लग गए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने और बैठकों में लोगों की समस्याओं को सुनने में। हालांकि यह आसान नहीं था, लेकिन लोगों ने मेरी बात सुननी शुरू कर दी और जल्द ही समस्याओं का समाधान होने लगा। 

बेटियों की परवरिश के साथ आदिवासी महिलाओं को जागरूक करने का काम  शुरू किया

सभी बाधाओं से लड़ते हुए, अपनी बेटियों की परवरिश के अलावा मैंने आदिवासी महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कृषि-उद्यमिता गतिविधियों में भागीदारी के लिए उन्हें प्रेरित करना शुरू कर दिया। महिलाओं के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए मैंने सरकार और इंटीग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी के साथ मिलकर काम किया। मैं गांवों में जाकर महिलाओं के बीच बैठक करती थी, और उनकी समस्या को समझने के बाद उसके समाधान का प्रयास करती थी। इस काम के दौरान मैंने आदिवासियों के लिए उचित पोषण और उच्च आय सुनिश्चित करने के लिए पारंपरिक फसलों के बीज इकट्ठा करने और उगाने की जरूरत महसूस की।

गांवों से बीज इकट्ठे किए

 इसके लिए मैंने विभिन्न गांवों में परिवारों से बीजों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया, जिन्हें कुछ लोगों ने कई सालों से बचाया था। फिर इन्हें दूसरों को वितरित किया गया और बोया गया। किसानों से तकरीबन 125 से अधिक प्रकार की फसलों के बीज एक​त्रित करने के बाद मैंने उनकी खेती के लिए कदम उठाए, जिसमें अहम बाजरा था। बाजरे व अन्य वनोपज से बने उत्पादों के प्रसंस्करण और बिक्री पर भी मैंने काम किया। महिलाओं के समूह द्वारा तैयार बाजरे के बिस्कुट को तकरीबन पचास छात्रावासों में पहुंचाया जाता है। साथ ही वन क्षेत्र में बहुतायत में पायी जाने वाली मेहंदी के उत्पादों को हम तैयार कर रहे हैं। वन क्षेत्र में हमारे द्वारा खेती की भूमि के लिए लगभग 1,600 महिला किसानों को पट्टा मिला, जब​कि आदिवासी किसानों के बीच करीब चार हजार एकड़ भूमि वितरित की गई है।