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बालश्रम और बंधुआ मजदूरी के खिलाफ चलाया अभियान

Published - Fri 17, Jan 2020

तीन दशक में एमवीएफ के इस शिविर के माध्यम से पांच लाख से ज्यादा छात्र मुख्यधारा की शिक्षा में शामिल हुए हैं।

shantha sinha

प्रो. शांता सिन्हा
आंध्र प्रदेश के नेल्लोर में एक मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में जन्मी सात भाइयों के बीच मैं अकेली लड़की थी। बालश्रम, बंधुआ मजदूरी को मैंने बेहद करीब से देखा है, पर तब इतनी समझ नहीं थी कि इसके खिलाफ आवाज उठानी है, या इसके समाधान के लिए संघर्ष करना है। मैंने अपने जीवन के पहले 20 साल हैदराबाद में बिताए। शुरुआती पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने उस्मानिया विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में परास्नातक की उपाधि ली। और फिर पीएचडी करने के लिए जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली चली गई। जेएनयू में अध्ययन के दौरान ही मैंने अपने सहपाठी से शादी की। मेरी पहली बेटी, मेरी पीएचडी खत्म करने से पहले हुई थी। उसे मुझे अपने माता-पिता के साथ छोड़ना पड़ा, ताकि जल्द अपना शोध पूरा कर सकूं। एक मां के लिए यह कठिन विकल्प होता है, लेकिन मुझे अपनी मंजिल और रास्ते के बारे में पता था, जिसकी अहम सीढ़ी शिक्षा थी। पीएचडी पूरी करने के बाद मेरी नियुक्ति एक व्याख्याता के रूप में उस्मानिया विश्वविद्यालय में हुई, बाद में मैं वहीं राजनीति शास्त्र विभाग में नियुक्त की गई। मेरे जीवन में पहले से काफी शांति और स्थिरता थी। लेकिन एक झटके ने सब अरमानों पर पानी फेर दिया, जब मस्तिष्क रक्तस्राव के कारण मेरे पति की मौत हो गई। इसके कुछ वर्ष बाद मैंने भारत की ग्रामीण राजनीति पर एक शोध करने का विचार किया। इस विषय पर बात करने से पहले मैंने एक गांव में जाने के बारे में विचार किया। मैंने हैदराबाद विश्वविद्यालय के आसपास के गांवों में जाना शुरू किया। मैं अपने इस काम को विश्वविद्यालय परियोजना का एक हिस्सा बनाना चाहती थी, साथ ही केंद्र सरकार द्वारा चलने वाले श्रमिक विद्यापीठ नामक एक कार्यक्रम के लिए भी आवेदन किया।
यह देश में पहली बार ग्रामीण श्रमिकों की शिक्षा के लिए शुरू किया गया कार्यक्रम था। हर शाम मैंने गांवों में जाना शुरू कर दिया, बिना यह जाने कि मैं क्या कर रही थी। वहां मैं दलित परिवारों और बंधुआ मजदूरों के परिवारों से मिली। हर रात मैं वहीं रहती और अगले दिन विश्वविद्यालय जाती थी। परिवारवालों ने मेरा सहयोग किया, मेरे माता-पिता मेरी बेटियों की देखभाल करते थे। इस दौरान मुझे, बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम के बारे में पता चला, तब मैंने उन लोगों को बंधुआ मजदूरी और उनके बच्चों को बालश्रम से मुक्ति दिलाने के बारे में विचार किया। मेरी एक दोस्त भी निकटतम जिले में ही इस मुद्दे पर काम कर रही थी। मैंने उसके कार्यक्रमों को देखा, उसकी मदद मांगी और उन मजदूरों को बाहर निकालने के लिए सहायता जुटानी शुरू कर दी। मैं उन मजदूरों को पढ़ाने के साथ संगठन तैयार करने लगी और उन्हें उनके अधिकारों पर जोर देने के लिए मजबूत करने लगी, तभी श्रमिक विद्यापाठ में मेरा कार्यकाल खत्म हो गया। मैंने देखा कि बंधुआ लोगों के बच्चों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं था। ऐसे में मैंने अपने परिवारिक ट्रस्ट मम्मीदिपुड़ी वेंकटारागैया फाउंडेशन (एमवीएफ) जो गरीब बच्चों के उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति के साथ उनके कल्याण के लिए काम कर रहा था, के तहत बाल मजदूरों और बंधुआ श्रमिकों के बच्चों पर ध्यान देना शुरू किया। चूंकि बहुत सारे बच्चे बड़े थे, तो आवासीय कार्यक्रमों की शुरुआत कर ब्रिज कोर्स के माध्यम से उन्हें अपनी उम्र के उपयुक्त कक्षा के लिए तैयार किया जाने लगा। पिछले तीन दशक की अवधि में एमवीएफ के इस शिविर के माध्यम से पांच लाख से ज्यादा छात्र मुख्यधारा की शिक्षा में शामिल हुए हैं। इलाके के डेढ़ सौ से ज्यादा गांव अब बाल श्रम मुक्त हैं। प्रत्येक बच्चे को स्कूल में लाना हमारे संघर्ष का एक हिस्सा था। 
-पद्मश्री से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता के विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित।