अमेरिका की जस्टिस रूथ बदर गिंस्बर्ग वो जुझारू महिला थीं, जिन्होंने महिलाओं के हक के लिए आवाज उठाई और महिलाओं के लिए बने कई सौ साल पुराने कानूनों को बदलवाकर ही दम लिया। रूथ ने पांच बार कैंसर को मात दी थी, लेकिन इस 19 सिंतबर को उन्होंने हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह दिया।
नई दिल्ली। अमेरिका में आज जो महिलाओं को आजादी मिली हुई है, पहले वो ऐसी नहीं थी। कई दशक पहले वहां महिलाओं की स्थिति बेहद दयनीय थी। वहां महिलाओं के लिए जो कानून थे वह महिलाओं के लिए बाधा ही थे। उन कानूनों के तहत महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त नहीं थी। लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाले सैकड़ों कानून उनके ऊपर थोपे हुए थे। जैसे कि पति ही घर का राजा है, गर्भवती महिलाओं को कंपनियां कानूनी तौर पर नौकरी से निकाल सकती थीं आदि। लेकिन वहां की महिलाओं के लिए कोई आवाज नहीं उठा रहा था, ऐसे में एक महिला उठ खड़ी हुई जिसे जस्टिस रूथ गिन्सबर्ग के नाम से जाना गया और उनके नेतृत्व और लोगों की मेहनत और सालों के वक्त के बाद महिलाओं को इन कानूनों से मुक्ति मिल ही गई। गिन्सबर्ग ने इन पुराने कानूनों में बदलाव लाकर अमेरिकी महिलाओं का आने वाला समय बदला, बल्कि अमेरिका का पूरा स्वरूप ही बदल दिया।
मां की शिक्षा से रूथ को मिली शक्ति
जस्टिस रूथ गिन्सबर्ग न्यूयॉर्क के एक मिडिल क्लास परिवार में जन्मीं। बचपन से ही अपनी मां से उनका गहरा लगाव था और उनपर मां का प्रभाव भी था। उनकी मां बेशक पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन उन्होंने हमेशा रूथ को स्वतंत्र रूप से जीना सिखाया। उनकी मां चाहती थीं कि रूथ खूब पढ़ें और आगे बढ़े। बड़े होने पर रूथ ने पाया कि अमेरिका में किस तरह ये लिंग भेद लोगों के जीवन का हिस्सा बना हुआ है और महिलाओं को समाज की मुख्यधारा से अलग रखा जा रहा है। उन्होंने कोरनेल यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया और उसके बाद 1957 में हावर्ड लॉ स्कूल से कानून की पढ़ाई की। उनकी क्लॉस में पांच सौ लड़के और मात्र नौ लड़कियां थीं। अपनी मेहनत के बल पर रूथ प्रतिष्ठित कानूनी पत्रिका हार्वर्ड लॉ रिव्यू की पहली महिला सदस्य बनीं। पढ़ाई पूरी करने के बाद रूथ ने पाया कि पूरे न्यूयॉर्क में उन्हें नौकरी देने के लिए एक भी फर्म नहीं थी, क्योंकि वो एक महिला थीं। नौकरी न मिलने पर रूथ ने 1963 में रूटग्रेस यूनिवर्सिटी लॉ स्कूल में प्रोफेसर की तरह पढ़ाना शुरू किया। उस दौरान अमेरिकन सिविल लिबर्टीस यूनियन महिला अधिकारों को लेकर एक परियोजना शुरू कर रहा था और रूथ को उसमें एक वकील के तौर पर चुना गया।
पुरुष प्रधान मानसिकता से लड़ी रूथ
रूथ एक ऐसी मानसिकता से लड़ रहीं थीं जो पुरुष प्रधान थी और जिनको लगता था कि लिंग भेद जैसी कोई चीज है ही नहीं है। जस्टिस रूथ गिन्सबर्ग ने वकील के तौर पर 300 से अधिक लिंग भेदभाव के मामलों पर बहस की जिनमें से कई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे। 1980 में राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने रूथ बेडर गिन्सबर्ग को कोलंबिया जिले के लिए अमेरिकी अपील न्यायालय में नियुक्त किया, उन्होंने वहां 13 साल तक काम किया। 1993 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन द्वारा उन्हें अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के तौर पर नियुक्त किया गया। जहां वो अमेरिका की दूसरी महिला न्यायाधीश बन गई।
बदली अमेरिका की रूपरेखा
1970 में सेरोन नाम की एक महिला जो वायु सेना में लेफ्टिनेंट की नौकरी कर रही थी। उन्हें पता चला कि उनके साथी पुरुषों को आवासीय भत्ता मिलता है, लेकिन महिला होने के चलते उन्हें इससे वंचित रखा गया है। जब उन्होंने ऑफिस में शिकायत की तो तो उन्हें टरकाया गया। सेरोन ने मुकदमा किया और उस केस की वकील रूथ थीं और सुप्रीम कोर्ट में लड़ा जाने वाला यह उनका पहला केस था और वह जीतीं भीं। 1975 में एक और केस उनके हाथ आया। स्टिफन विसेनफील्ड नाम के एक व्यक्ति की पत्नी पाऊला की मृत्यु डिलिवरी के बाद हो गई। स्टीफन अकेले बच्चे की जिम्मेदारी उठाने लगे और कए दिन उन्होंने सरकारी दफ्तर जाकर पूछा कि अकेले अभिभावक के लिए सरकार द्वारा क्या सुविधाएं दी जाती हैं, तो पता चला कि ये सुविधाएं केवल मां के लिए हैं। इस केस में भी रूथ को जीत मिली और दोनों ही मामलों में महिलाओं को उनका हक मिला। नौकरी में महिलाओं को पुरुषों के बराबर भत्ता मिलने लगा। 1996 की बात थी। वर्जिनिया का 157 साल पुराना एक पुरुष सैन्य कॉलेज वीएमआई में एक लड़की एडमिशन लेना चाहती थी, लेकिन लड़की होने के कारण उसे साफ मना कर दिया गया। मुकदमा दायर हुआ रूथ ने 1997 में इसमें जीत हासिल कर इस कॉलेज में लड़कियों के एडमिशन की राह खोल दी। इसी तरह रूथ ने 1971 में संपत्ति के अधिकार में महिलाओं के हक के लिए आवाज उठाई और मुकदमा जीतकर कानून बदलवाया। इसी तरह लिंगभेद के एक कानून को और बदलवाया जिसमें ओकलाहोमा शहर में कानून के हिसाब से महिलाओं को महिलाओं को 18 साल के बाद अल्कोहल पीने की इजाज़त थी जबकि पुरुषों को 21 साल होने के बाद जो की उनकी नजर में भेदभाव है। ये मामला भी कोर्ट में गया और रूथ ने जीत दर्ज कर इसमें भी बदलाव कराया।
87 साल की उम्र में कहा दुनिया को अलविदा
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त दूसरी महिला जस्टिस रूथ बदर गिंस्बर्ग का 87 वर्ष की उम्र में अग्नाशय कैंसर से 19 सिंतबर को निधन हो गया। 5 बार कैंसर से जंग लड़ चुकी गिंस्बर्ग अंतत: हार गईं। अमेरिका में उनकी स्पष्ट असहमतिपूर्ण राय ने उन्हें एक बड़ी शख्सियत बनाया। महिला अधिकारों की वकालत करते हुए वे नौवें दशक में देश की युवा पीढ़ी के लिए सांस्कृतिक आइकन बन गईं। गिन्सबर्ग ने अदालत के उदारवादी विंग के निर्विवाद नेता के रूप में बेंच पर अपने आखिरी साल बिताए और अपने प्रशंसकों के लिए रॉक स्टार बनकर उभरीं। 1993 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने जज रूथ बदर को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया था।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.