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लोगों की जिंदगी में रंग भर रहीं दिव्यांग स्वर्णलता

Published - Thu 12, Mar 2020

अगर व्यक्ति चाहे तो अपने मजबूत इरादे से बड़े से बड़े काम को आसानी से संभव बना सकता है। ऐसा ही कुछ कर रहीं हैं शारीरिक रूप से 80 प्रतिशत दिव्यांग स्वर्णलता जे। वह न केवल लोगों की जिंदगी में रंग भर रही हैं बल्कि लोगों के लिए एक मिसाल भी बन चुकी हैं।

swarlata

नई दिल्ली। बतौर स्वर्णलता मैं शारीरिक रूप से 80 प्रतिशत दिव्यांग हूं, अपनी सीमाओं के बावजूद मैं इतना कुछ कर रही हूं, जो शायद एक सक्षम व्यक्ति के लिए मुश्किल है। मैं तमिलनाडु के कोयंबटूर की रहने वाली हूं। मैं एक संगठन का नेतृत्व करने के साथ पेशेवर गायिका, लेखिका, फोटोग्राफर और प्रेरक वक्ता भी हूं। मैंने खुद पर विश्वास करने के साथ शारीरिक दिव्यांगता पर काबू पा लिया है। मेरा जन्म बंगलूरू के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। बचपन से ही मुझे वित्तीय समस्याओं का सामना करना पड़ा। बचपन में ही मैंने अपने पिता को खो दिया।

दुर्घटना के बाद बदला जीवन

10वीं की पढ़ाई के बाद मैंने डिप्लोमा इन कंप्यूटर साइंस में दाखिला लिया। पढ़ाई के दौरान ही एक दिन सुबह कॉलेज जाते समय मैं एक दुर्घटना का शिकार हो गई। मेरा जबड़ा टूट चुका था। एक माह अस्पताल में रहने के बाद मैं घर तो आ गई, पर छह माह तक बोलने या खाने में असमर्थ रही। कई ऑपरेशन के बाद जब मैं ठीक हुई, तो डिप्लोमा पूरा किया। पर वित्तीय समस्या के चलते मैं उच्च शिक्षा के लिए दाखिला नहीं ले सकी और 18 वर्ष की उम्र में अपनी पहली नौकरी शुरू की।

प्रेम विवाह के बाद घरवालों ने तोड़ा नाता

जब मैंने प्रेम विवाह करने का फैसला किया, तो मेरे परिवार ने मुझसे नाता तोड़ लिया, क्योंकि यह उनकी इच्छा के विरुद्ध था। मुझे मेरी पहली नौकरी से एक असंगत मुद्दे पर निकाल दिया गया। इसके बावजूद मैंने हर दिन अपना कौशल निखारने का प्रयास जारी रखा और जल्द ही मल्टीनेशनल कंपनियों के साथ काम करना शुरू किया।

उम्र के तीसरे दशक में लाइलाज गंभीर बीमारी से पीड़ित हुई

उम्र के तीसरे दशक में मुझे जीवन का सबसे बड़ा आघात लगा। वर्ष 2009 में मेरी शादी की सालगिरह से ठीक एक दिन पहले मैं सुबह पूरी तरह से ठीक थी। दोपहर बाद मुझे बुखार होने लगा, तो मैंने कुछ दवाइयां लीं। लेकिन अस्पताल की रिपोर्ट में इसकी पुष्टि की गई कि मैं प्रोग्रेसिव मल्टीपल स्केलेरोसिस, जो कि एक दुर्लभ न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारी है, और जिसके ठीक होने की कोई संभावना नहीं है, की चपेट में हूं। जिस कॉरपोरेट कंपनी में मैं काम करती थी, वहां से मुझे इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा। अस्पताल में मैं अवसाद में चली गई। एक बार तो मैंने अपना जीवन समाप्त करना चाहा। लेकिन अपने परिवार का ध्यान आने पर मुझे एहसास हुआ कि जीवन को एक और मौका देना चाहिए। अस्पताल में अन्य रोगियों को देखकर मैं खुद में आशावादी दृष्टिकोण का अनुभव करने लगी। तीन माह से ज्यादा समय अस्पताल में गुजारने के बाद जब मैं वापस घर आई, तो खुद को एकदम अलग पाया। मेरा वजन कम हो गया और मैं युवा दिख रही थी। मैंने खुद से कहा कि मल्टीपल स्केलेरोसिस मेरे मस्तिष्क में है, मैं इसे अपने आप पर हावी नहीं होने दूंगी। इसके बाद मैंने इस तरह की बीमारियों से ग्रस्त लोगों की मदद करने का फैसला किया, जिनके लिए हर दिन एक नया संघर्ष होता है।

रोगियों के बीच जागरूकता शुरू की

मैंने स्केलेरोसिस के रोगियों के बीच कठपुतली शो, फेस पेंटिंग, मेहंदी, योग और अन्य कौशल-आधारित कार्यशालाओं का संचालन शुरू किया। मैंने उनके बीच जागरूकता फैलानी शुरू की कि केवल एक बीमारी उनकी मंजिल का रास्ता नहीं रोक सकती। वर्ष 2014 में मैंने कोयंबटूर में पति के सहयोग से स्वर्ग फाउंडेशन की स्थापना की, जो गंभीर न्यूरोमस्कुलर विकारों से ग्रस्त रोगियों के लिए काम करती है। हम पूरे देश में इसके जरिये काम करते हैं। हमने कोयंबटूर के सात सरकारी स्कूलों को व्हीलचेयर रैंप और सुलभ शौचालयों के साथ दिव्यांग बच्चों के लिए सुलभ बनाया है। अब विशेष बीमारियों से ग्रसित बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। मैं दिव्यांगता को लेकर समाज में फैली रूढ़िवादी धारणा को मात देकर सैकड़ों लोगों की जिंदगी में रंग भर रही हूं।