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'लिज्जत' ने महिलाओं को दिलाई इज्जत

Published - Fri 11, Oct 2019

लिज्जत पापड़ का कारोबार महज 80 रुपये से शुरू किया गया था जो आज 500 करोड़ रुपये के आंकड़े को पार कर चुका है। पापड़ के इस कारोबार ने न केवल महिलाओं को इज्जत दिलाई, बल्कि शोहरत का एक नया मुकाम भी दिया। आज इस पापड़ उद्योग का कारोबार देश के 81 शहरों में फैला है। इसकी अलग-अलग यूनिटों में 55 हजार से ज्यादा लोग काम कर रहे हैं। इनमें ज्यादातर महिलाएं ही हैं। इस फर्म की मुख्य शाखा मुंबई में है।

नई दिल्ली। चीन में एक कहावत है, 'हर बड़े सफर की शुरुआत एक छोटे कदम से होती है।' एक ऐसा ही छोटा कदम 7 निरक्षर गुजराती महिलाओं ने साल 1959 में उठाया। आहिस्ता-आहिस्ता फासला घटता गया और मंजिल करीब आती गई। लगभग 60 साल के सफर के बाद आज एक छोटे से लघु उद्योग ने अपना इतना विस्तार किया कि देश ही नहीं दुनिया में इसकी एक अलग पहचान बन गई है। पहचान भी ऐसी की नाम सुनते ही आपकी जुबान पर उसका टेस्ट खुद-ब-खुद आ जाए। महज 80 रुपये से शुरू किया गया यह कारोबार आज 500 करोड़ रुपये के आंकड़े को पार कर चुका है। यहां हम बात कर रहे हैं, लिज्जत पापड़ की। पापड़ के इस कारोबार ने न केवल महिलाओं को इज्जत दिलाई, बल्कि शोहरत का एक नया मुकाम भी दिया। आज इस पापड़ उद्योग का कारोबार देश के 81 शहरों में फैला है। इसकी अलग-अलग यूनिटों में 55 हजार से ज्यादा लोग काम कर रहे हैं। इनमें ज्यादातर महिलाएं ही हैं। इस फर्म की मुख्य शाखा मुंबई में है।

ऐसे शुरू हुआ लिज्जत का सफर
लिज्जत पापड़ का कारोबार मुंबई में रहने वाली 7 गुजराती महिलाओं ने शुरू किया। ये सभी यहां के गिरगौम लोहाना में रहती थीं। ये सातों महिलाएं जसवंतीबेन जमनादास पोपट, पार्वतीबेन रामदास ठोदानी, उजमबेन नरानदास कुण्डलिया, बानुबेन तन्ना, लागुबेन अमृतलाल गोकानी, जयाबेन विठलानी और एक अन्य महिला निरक्षर थीं। इनका परिवार रुपयों की कमी के कारण आर्थिक अभाव से जूझ रहा था। इन्हें अपनी छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता था। इनके पास इतने रुपये भी नहीं थे कि वे कोई कारोबार कर सकें। ऐसे में इन महिलाओं ने अपने घर का काम निपटाने के बाद बचने वाले समय में कोई छोटा कारोबार करने की ठानी। लेकिन फिर रुपये की समस्या सामने आ खड़ी हुई। इसी बीच जसवंतीबेन के घर आए एक मेहमान ने उनके बनाए पापड़ की तारीफ की तो उन्हें व्यापार का आइडिया मिल गया। फिर क्या था, सातों सहेलियों ने चर्चा की और पापड़ का कारोबार शुरू करने की ठानी। इसके लिए उन्होंने सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसायटी के अध्यक्ष और एक सामाजिक कार्यकर्ता छगनलाल पारेख से 80 रुपये उधार लिए। इसके बाद इन महिलाओं ने घाटे में चल रहे एक कारोबारी से पापड़ बनाने की मशीन के साथ पापड़ बनाने के लिए कुछ अन्य जरूरी सामान भी खरीदे। सभी जरूरी सामान इकट्ठा करने के बाद 15 मार्च 1959 को इन गुजराती महिलाओं ने अपनी बिल्डिंग की छत पर ही पापड़ बनाने का काम शुरू किया। सबसे पहले इन्होंने पापड़ के 4 पैकेट बनाये। पापड़ के इन पैकेटों को बेचने के लिए महिलाओं ने मुंबई के एक बड़े व्यापारी भुलेश्वर से संपर्क किया। व्यापार शुरू करने के साथ ही इन सातों महिलाओं ने प्रण किया कि वे अपने इस व्यवसाय के लिए किसी से चंदा नहीं मांगेगी, चाहे यह कारोबार बंद ही क्यों न हो जाए।

छगनलाल पारेख बने महिलाओं के मार्गदर्शक
महिलाओं की लगन और मेहनत देख छगनलाल पारेख उनके मार्गदर्शक बन गए। शुरुवात में इन महिलाओं ने दो प्रकार के पापड़ बनाये, जिसमें से एक की क्वालिटी को उन्होंने सस्ते दामों पर बेचा। यह देख छगनलाल ने इन महिलाओं को स्टैंडर्ड पापड़ बनाने का सुझाव दिया और क्वॉलिटी से समझौता न करने को कहा। छगनलाल ही इन महिलाओं का लेखा-जोखा भी संभालते थे। कुछ ही महीनों में लिज्जत कोऑपरेटिव सिस्टम बन गया। पापड़ की बढ़ती लोकप्रियता के कारण 3 महीने में ही समूह से और भी महिलाएं जुड़ी और इनकी संख्या 25 तक पहुंच गई। अब कुछ महिलाएं अपने साथ पापड़ बनाने के कुछ जरूरी सामान जैसे बर्तन, स्टोव आदि साथ लाती थीं, जिससे काफी आर्थिक मदद होती थी।

बारिश से निपटने के लिए खुद निकाला रास्ता
पहले साल में लिज्जत पापड़ की बिक्री 6196 रुपये हुई। शुरुवात के पहले साल में महिलाओं को बारिश के मौसम में तकरीबन 4 महीने अपना काम ठप करना पड़ा। इसका कारण पापड़ों का नहीं सूखना था। इससे परेशान महिलाओं के समूह ने एक साल में ही इस समस्या का तोड़ भी ढूंढ निकाला। महिलाओं ने एक खटिया और स्टोव खरीदा, जिसकी मदद से पापड़ों को सुखाया जाता था। पापड़ उद्योग शुरू करने के दूसरे साल ही महिलाओं के इस समूह ने माउथ पब्लिसिटी और अखबारों में छपे लेखों के जरिये खूब नाम कमाया। इसका इस समूह को खूब फायदा हुआ और कई महिलाएं इस कारोबार से जुड़ गईं। दूसरे साल इस ग्रुप में 150 महिलाएं जुड़ीं। तीसरे साल यह आंकड़ा 300 के पार पहुंच गया।

1962 में पापड़ को नाम मिला लिज्जत
1962 में समूह ने अपने पापड़ का नामकरण करते हुए इस लिज्जत नाम दिया। यह एक गुजराती शब्द है, जिसका अर्थ स्वादिष्ट होता है। इसके नामकरण का वाकया भी काफी दिलचस्प है। इसके लिए एक कांटेस्ट रखा गया था और लिज्जत नाम देने वाली धीरजबेन रुपारेल इस कांटेस्ट की विजेता बनीं थीं। इनाम के तौर पर उन्हें 5 रुपये दिए गए थे। इसी के साथ इस समूह का नाम 'श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़'  रखा गया। 1962-63 में इस ग्रुप की वार्षिक आय 1 लाख 82 हजार पहुंच गई थी।  जुलाई 1966 में लिज्जत को सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर किया गया। इसी साल खादी विकास और ग्रामीण उद्योग परिषद के अध्यक्ष देवधर में खुद लिज्जत का इंस्पेक्शन किया और 8 लाख की पूंजी का निवेश किया।

दिनों-दिन बढ़ती गई शोहरत, विदेश तक फैला कारोबार
अब लिज्जत पापड़ की अपार सफलता के बाद महिलाओं ने खाखरा, मसाला, वादी और बेकरी प्रोडक्ट भी शुरू कर दिए। 70 के दशक में लिज्जत ने आटा चक्की, प्रिंटिंग डिवीज़न और पैकिंग डिसिशन की मशीनें भी लगा दीं। इस ग्रुप ने माचिस और अगरबत्ती बनाने का काम भी शुरू किया था, लेकिन सफल नहीं हुआ। 90 के दशक में लिज्जत ने अपना व्यापार विदेशों में फैलाना शुरू कर दिया। 2002 में लिज्जत का टर्न ओवर 10 करोड़ रुपये तक पहुंच गया।  लिज्जत ग्रुप के प्रत्येक सदस्य को बहन कहकर संबोधित किया जाता है और वह श्री महिला उद्योग लिज्जत पापड़ की सह-स्वामित्वधारी मानी जाती है।