घर चलाने के साथ नौकरी करने का जैसा दबाव महिलाओं के ऊपर होता है, पुरुष न तो वैसा दबाव झेलते हैं और न ही नियोक्ता से लेकर घर-समाज उनसे वे अपेक्षाएं करता है। 21वीं सदी के भारत में भी महिलाओं की स्थिति में कोई ज्यादा फर्क नहीं आया है।
मनीषा सिंह
भारत में यह बड़ी विडंबना है कि एक तरफ महिलाओं के साथ उनका समाज कोई रियायत नहीं बरतता, तो दूसरी तरफ कार्यस्थल पर उन्हें यह कहकर कोई छूट नहीं मिलती कि उन्हें तो पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलना है। महिला सशक्तीकरण हो जाए और घर के कामकाज में स्त्री के हाथ लगने का सुभीता बना रहे, इसके लिए अध्यापन जैसे पेशे को महिलाओं के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। यह नहीं हो सकता कि कोई शिक्षिका सुबह उठकर स्कूल जाने की तैयारी करे, पर घर की साफ-सफाई न करे, परिवार के लिए भोजन न पकाए। जबकि उसी स्कूल में पढ़ाने वाले पुरुष शिक्षक घर में चाय बनाने से ज्यादा कोई योगदान शायद ही करते हों।
कामकाजी स्त्रियों की इस स्थिति का अंदाजा शीर्ष संस्थाओं को भी है, इसीलिए चार साल पहले विश्व बैंक ने टिप्पणी की थी कि हम महिलाओं के सशक्तीकरण की चाहे जितनी डींगें हांक लें, पर 21वीं सदी के भारत में भी महिलाओं की स्थिति में कोई ज्यादा फर्क नहीं आया है। वे पढ़-लिखकर कामकाजी जरूर हुई हैं, पर घर से बाहर उन्हें और ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। नौकरी के लिए निकलते हुए उन्हें अपने पति और सास-ससुर से इजाजत लेनी पड़ती है। मर्दों से कम वेतन पर उन्हें ज्यादा असुविधाजनक माहौल में काम करना पड़ता है, कई बार सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न सहना पड़ता है और वे हिंसा का शिकार भी होती हैं। इसके बाद भी उन्हें घर के काम या अन्य जिम्मेदारियों से छूट नहीं मिलती।
इन सारे तथ्यों का एक ठोस संकेत विश्व बैंक की ‘महिला, कारोबार और कानून 2016’ रिपोर्ट में किया गया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि यह घोर अन्याय है कि जिस समाज की उन्नति में महिलाएं अपना भरपूर योगदान देती हैं, वही समाज महिलाओं के नौकरी पाने की उनकी क्षमता या आर्थिक जीवन में उनकी भागीदारी पर पाबंदियां लगाता है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि 30 देशों में विवाहित महिलाएं इसका चयन नहीं कर सकतीं कि उन्हें कहां रहना है, जबकि 19 देशों में वे अपने पति का आदेश मानने को कानूनन बाध्य होती हैं।
घर के साथ नौकरी चलाने का जैसा दबाव महिलाओं के ऊपर होता है, पुरुष न तो वैसा दबाव झेलते हैं और न ही नियोक्ता से लेकर घर-समाज उनसे वे अपेक्षाएं करता है। समाज तो जब बदलेगा, तब बदलेगा, लेकिन महिला कर्मचारियों को नियुक्त करने वाली कंपनियां-फैक्टरियां तो ऐसे प्रबंध कर ही सकती हैं कि वे कार्यस्थल पर महिलाओं के अनुकूल वातावरण बनाएं और उनकी अपेक्षाओं-जरूरतों को ध्यान में रखें। अभी हमारे देश में ऐसी पहलकदमी करने वाली कंपनियां उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं। एक बड़ा मसला मातृत्व का भी है। वैसे तो लगभग पूरी दुनिया में स्त्री के लिए नौकरी करते हुए बच्चे को जन्म देना और उसका पालन-पोषण करना बेहद मुश्किल काम है। पर भारत में तो ज्यादातर छोटी कंपनियों में किसी महिला के लिए मातृत्व का मतलब आम तौर पर अपने करियर की तिलांजलि देना ही होता है।
इसका अभिप्राय यह नहीं है कि कंपनियां अपने दफ्तरों में कर्मचारियों के बच्चों के लिए किंडरगार्टन बनाएं, बल्कि यह भी है वे महिला कर्मचारियों को बाधारहित करियर का विकल्प दें। चाहे अध्ययन का मामला हो या कंपनियों में नौकरी का, ध्यान रखना होगा कि पूरी दुनिया में समाज और मूल्य तेजी से बदल रहे हैं। इसलिए सभी का प्रयास ऐसे बदलावों से तालमेल बिठाना होना चाहिए, जिससे स्वस्थ समाज की रचना हो सके।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.