जुलेखा बानो एक ऐसे समुदाय से आती हैं, जहां बच्चों को पढ़ने स्कूल नहीं भेजा जाता लेकिन उन्होंने सामाजिक बहिष्कार सहकर भी न केवल पढ़ाई पूरी की बल्कि अपने समुदाय की पहली वकील भी बनीं।
नई दिल्ली। जुलेखा बानो लद्दाख के बोग्दंग गांव की रहने वाली हैं और बाल्टी समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। उनकी मानें तो मेरी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई लद्दाख के ही आर्मी गुडविल स्कूल में हुई। शुरुआत में आतंकियों के डर से कोई भी उस स्कूल में अपने बच्चों को नहीं भेजना चाहता था, लेकिन मेरे पिता ने हम तीन भाई-बहनों को वहां पढ़ने भेजा। मेरे पिता एक छोटे ठेकेदार थे, जो सेना को मजदूरों की जरूरतें पूरी करने में मदद करते थे। गांव में टीवी देखने, मोबाइल टावर लगाने और यहां तक कि पर्यटकों को आने की भी अनुमति नहीं थी, लड़कियों की शिक्षा तो दूर की बात थी। स्थानीय मौलवी किसी को भी आठवीं क्लास से ज्यादा नहीं पढ़ने देते थे। स्कूल में एक बार मैंने एक सांस्कृतिक आयोजन में डांस किया, जबकि मेरी बहन ने गाना गाया। इस पर समुदाय के कुछ प्रभावशाली लोगों ने मेरे परिवार पर धर्म से भटकने का आरोप लगाया, लेकिन मेरे पापा झुके नहीं और उन्होंने मुझे उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया। उसके बाद मैंने वकालत की डिग्री हासिल की।
सामाजिक बहिष्कार के बाद गांव छोड़ना पड़ा
जब मैंने स्कूल के आयोजन में डांस किया और मेरे पापा मेरे लिए खड़े रहे, तो इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। समुदाय के लोगों ने हमारा सामाजिक बहिष्कार कर दिया। उनके मस्जिद में जाने पर रोक लगा दी गई, जुर्माना लगा दिया गया। आखिरकार हम अपना गांव को छोड़ने के लिए मजबूर हो गए। पापा ने मुझे पढ़ाई के लिए देहरादून भेज दिया, जबकि बाकी परिवार लेह में रहने लगा।
बेचनी पड़ी जमीन
अपने काम के साथ पापा ने सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ भी अपनी लड़ाई जारी रखी। इस सिलसिले में उन्होंने कई अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों और पत्रकारों से संपर्क किया, लेकिन उन्हें कोई मदद नहीं मिली। हमारी पढ़ाई के लिए मेरे पिता को अपनी जिप्सी और जमीन भी बेचनी पड़ी। वह एक प्रगतिशील विचारों वाले शख्स हैं, जिनका मानना है कि बेटियों को जरूरी शिक्षा मिलनी चाहिए।
जंग के बाद आया बदलाव
जब मैंने देहरादून में वकालत की पढ़ाई के लिए प्रवेश लिया, तब पता चला कि अपने समुदाय में कानून की पढ़ाई करने वाली मैं पहली लड़की हूं। पापा के प्रयासों से हमारे समुदाय में बदलाव आया है। नतीजतन लोगों ने हमें दोबारा अपना लिया। अब मैं वकालत के साथ गांव में मानसिक और दिव्यांग बच्चों के लिए एनजीओ शुरू करने का प्रयास कर रही हूं।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.