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सड़क पर रहने वाले बच्चों को सक्षम बना रहा लक्ष्यम

Published - Mon 05, Oct 2020

राशि आनंद को आज हर कोई जानता है। उन्होंने अपनी पढ़ाई के दौरान सड़क पर रहने वाले बच्चों की दुर्दशा को देखी और फिर उन बच्चों के लिए कुछ अलग करने के बारे में सोच लिया। उसके बाद उन्होंने इन्हें इनका लक्ष्य पूरा करने के लिए लक्ष्यम की स्थापना की।

rashi aanand

नई दिल्ली। राशि दिल्ली के एक मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती हैं। बतौर राशि जब मैंने स्कूल की पढ़ाई पूरी की, तो मेरी उम्र करीब 18 साल रही होगी। उसी दौरान मैंने अपनी मां के साथ काम करना शुरू किया, जो कि आदिवासी महिलाओं के उत्थान के लिए काम करती थीं। उन्होंने रांची में एक अनाथालय की स्थापना की, जहां दिव्यांग व अनाथ बच्चों का पालन-पोषण किया जाता है। मैं अक्सर मां के साथ ग्रामीण क्षेत्रों की यात्राएं करती थीं। वहीं मैंने ग्रामीण क्षेत्र के जीवन और गरीबी का अनुभव किया।  मैंने स्नातक, परास्नातक के साथ राष्ट्रीय विज्ञापन संस्थान से विज्ञापन और इवेंट मैनेजमेंट में डिप्लोमा प्राप्त किया।  पढ़ाई के दौरान मैं सड़क पर रहने वाले बच्चों की दुर्दशा से प्रभावित हुई, जो भीख मांगते थे, नशीले पदार्थों की तस्करी को अंजाम देते थे। हालांकि अधिकतर मामलों में ये बच्चे परिस्थितियों के आगे मजबूर होकर ऐसे काम करते हैं। मैं ऐसे बच्चों को सामान्य जीवन जीने का मौका देना चाहती थी और इसी उद्देश्य के साथ मैंने 'लक्ष्यम' की स्थापना की। सबसे पहले मैंने बच्चों के लिए खिलौने और पुस्तकें इकट्ठा करना शुरू किया। हमने तकरीबन 60 हजार खिलौने इकट्ठे करके वितरित किए।

पहले सक्षम स्कूल खोला

बतौर राशि चूंकि इन बच्चों को शिक्षित करना हमारा प्रमुख उद्देश्य था, इसलिए हमने वसंतकुंज इलाके में सक्षम नाम से एक स्कूल खोला, जहां करीब दो सौ बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जा रही है। स्कूल वंचित बच्चों में नशा और तंबाकू सेवन के हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए कई कार्यशालाओं का आयोजन करता है।

शिक्षा की ओर जोड़ा 

अब हम संगठन के माध्यम से दिल्ली, उत्तराखंड, तमिलनाडु, झारखंड और कर्नाटक समेत छह राज्यों में काम कर रहे हैं। बीते कुछ वर्षों में हमने सड़क पर रहने वाले तकरीबन सात हजार बच्चों की मदद की और उन्हें शिक्षा की ओर मोड़ा है। 

शुरुआती परेशानियां

मैं पेशे से एक इवेंट मैनेजर हूं। एनजीओ की शुरुआत में लोगों ने मेरी योजनाओं को गंभीरता से नहीं लिया था, उनका मानना था कि यह वयस्क लोगों का काम है, न कि युवाओं का। लेकिन मां के सहयोग और दोस्तों के नैतिक समर्थन के चलते मैं इन मुश्किलों का सामना करने में सक्षम थी।