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गैर कश्मीरी से शादीशुदा बेटियों को मिला पैतृक संपत्ति में ‌अधिकार

Published - Thu 22, Aug 2019

भारत के संविधान के तहत देश की बेटियों/महिलाओं को बहुत सारे अधिकार मिले हुए हैं, लेकिन विडंबना रही कि उन सभी अधिकारों से जम्मू-कश्मीर राज्य की बेटियां दशकों तक महरूम रहीं।

kashmir ki betiyan

केंद्र सरकार ने जैसे ही जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाई तो इसी के साथ ही अनुच्छेद 35ए का भी खात्मा हो गया है। 35ए के खत्म होने से सबसे ज्यादा फायदा कश्मीर की उन बेटियां को हुआ है जो किसी गैर कश्मीरी से शादी करने के बाद पिता की संपत्ति से बेदखल कर दी गई थीं, साथ ही उन्हें और भी कई अधिकारों से वंचित होना पड़ा। अब जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित राज्य बन चुका है। अब यहां भारत का संविधान पूर्णतः लागू हो चुका है। अब वो सभी अधिकार/कानून जम्मू-कश्मीर की बेटियों/महिलाओं को मिल गए हैं, जो देश के बाकी राज्यों की बेटियों/महिलाओं को मिले हुए हैं। 

भारत के संविधान के तहत देश की बेटियों/महिलाओं को बहुत सारे अधिकार मिले हुए हैं, लेकिन विडंबना रही कि उन सभी अधिकारों से जम्मू-कश्मीर राज्य की बेटियां दशकों तक महरूम रहीं। अनुच्छेद 370 और 35ए के तहत कुछ विशेष अधिकार कश्मीर की जनता को मिले हुए थे, लेकिन कश्मीरी महिलाओं को उनसे वंचित कर दिया गया था। जैसे जम्मू-कश्मीर का बेटा अगर राज्य के बाहर शादी कर लें या विदेशी बहू ही क्यों न ले आएं तो उसकी पत्नी और उनकी संतानों को भी यहां स्थायी नागरिक माना जाता था, उन्हें संपत्ति का अधिकार मिलता था, लेकिन कश्मीर की बेटी किसी गैर कश्मीरी से शादी कर लें तो उसके सारे हक खत्म हो जाते थे। पर अब ऐसा नहीं होगा।
भारत का संविधान देश के नागरिकों को प्रेम-विवाह करने का अधिकार देता है। इसके अंतर्गत कोई भी बालिग पुरुष और महिला अपनी बिरादरी-जाति से बाहर या फिर दूसरे राज्य के निवासी के साथ अपनी मर्जी से विवाह कर सकते हैं। ऐसा करने पर उनके स्टेट्स में कोई फर्क नहीं आता है, ना ही उनके साथ भेदभाव होता है और उन्हें संविधान के तहत सभी हक भी मिलते हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीर में पहले ऐसा नहीं था। 


संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत एक ओर हम हर स्तर पर महिला और पुरुष के सामान अधिकार की बात करते हैं और वहीं कश्मीर में 35ए कानून के नाम पर महिलाओं से भेदभाव किया जा रहा था। पर अब मौजदा परिस्थितियां बदल चुकी हैं। अब जम्मू-कश्मीर में वहीं कानून लागू हो गए हैं जो देश के बाकी नागरिकों को भी मिले हुए हैं। भारतीय संविधान के तहत अब जम्मू-कश्मीर के नागरिक भी आ गए हैं। अब उनकी दोहरी ना‌गरिकता नहीं है। यहां के सभी बाशिंदे केवल और केवल भारतवासी ही कहलाएंगे। 

अनुच्छेद 35ए का क्या था मतलब
भारतीय संविधान का आर्टिकल 35ए के तहत जम्मू-कश्मीर में स्थानीय नागरिकों को कुछ विशेषाधिकार मिल हुए थे, इसमें उनकी नागरिकता अधिकार, संपत्ति अधिकार और वैवाहिक अधिकार शामिल थे। इस प्रावधान के अनुसार जम्मू कश्मीर की पीआरसी धारक (स्थायी निवासी प्रमाणपत्र यानी परमानेंट रेजिडेंस सर्टिफिकेट) कोई भी महिला, चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान, सिख हो या बौद्ध... कश्मीर में ही रह रहे ‌किसी गैर पीआरसी धारक व्यक्ति से या राज्य से बाहर के व्यक्ति से विवाह करती थी, तो उसे बतौर पीआरसी धारक जितने अधिकार मिलते थे, वो सभी छोड़ने पड़ते थे और सरकार से कहीं कोई गलती न हो जाए इसलिए महिलाओं के पीआरसी पर “वैलिड टिल मैरिज" अर्थात “विवाह तक वैध" ये लिख दिया जाता था । 
इसका मतलब था कि यदि कोई पीआरसी धारक महिला जो जम्मू कश्मीर में पली-बढ़ी हो, उसके माता-पिता, पुरखे भी पीढ़ी दर पीढ़ी वहीं रह रहे हों, अगर बिना पीआरसी धारक से या राज्य से बाहर के किसी आदमी से शादी करे, तो शादी के बाद, ना तो ये महिला राज्य में सरकारी नौकरी कर सकती थी, न पढ़ सकती थी, न वोट डाल सकती थी, यहां तक की संपत्ति खरीद और बेच भी नहीं सकती थी। अत्याचार की पराकाष्ठा तो यह थी कि गैर कश्मीरी से शादीशुदा को अपने ही माता-पिता से मिलने वाली संपत्ति से बेदखल कर दिया जाता था।  जी हां, माता पिता की इकलौती संतान बेटी अगर किसी गैर कश्मीरी से शादी कर ले तो लड़की को अपनी पैतृक संपत्ति के सारे अधिकार छोड़ने पड़ते थे। कहने का तात्पर्य यह कि नए भारत की इस महिला को किससे शादी करनी चाहिए, किस से प्रेम करना चाहिए...यह भी तय करने का अधिकार नहीं था। समस्या तब और गंभीर हो जाती थी जब ऐसी महिला विधवा हो जाती है या उसका तलाक हो जाता था। ऐसे हालात में जाहिर तौर पर लड़कियां अपने मायके यानी माता पिता या भाई के पास वापस आ जाती हैं। लेकिन गैर पीआरसी से शादी करने की सजा तो उससे भुगतनी ही पड़ती थी, वो वापस आकर रह तो सकती थी, लेकिन बाकी कोई अधिकार उसे नहीं मिलते थे। 

पुरुषों से नहीं होता भेदभाव
यहां यह बताना जरूरी है कि इसके ठीक विपरीत यदि कोई पीआरसी धारक पुरुष गैर पीआरसी धारक महिला से या राज्य ही नहीं, देश से भी बाहर की महिला से विवाह करे तो न केवल पुरुष के सभी अधिकार सुरक्षित रहते हैं, बल्कि उससे विवाह करनेवाली महिला को भी पीआरसी मिल जाता है और सारे अधिकार भी मिल जाते हैं। ऐसी शादी में यदि पति की मृत्यु हो जाती है तो उसकी विधवा को संपत्ति के सारे अधिकार भी मिल जाते हैं। 

2002 में आया बदलाव
साल 2002 में सुशीला सावहनी का मामला जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय में आया, जिसमें “गैर पीआरसी व्यक्ति से विवाह करने पर क्या पीआरसी धारक महिला के अधिकार समाप्त हो जाते हैं” इस मुद्दे पर बहस हुई। माननीय न्यायालय ने "विवाह तक वैध" लिखने वाले नियम को समाप्त करने का आदेश देते हुए ये स्पष्ट कर दिया कि राज्य से बाहर या गैर पीआरसी धारक व्यक्ति से विवाह करने पर महिलाओं के किसी भी अधिकार को समाप्त या निरस्त नहीं किया जा सकता है। इस फैसले के बाद महिलाओं की स्तिथि में बदलाव आया पर अभी भी उनके अधिकार पुरुषों के सामान नहीं थे। मरहूम सुनंदा जम्मू कश्मीर से थीं, पर उन्होंने शादी राज्य से बाहर के व्यक्ति से की थी । बावजूद इसके उनके पति शशि थरूर जो, सांसद थे, केंद्र सरकार में मंत्री थे, फिर भी जम्मू कश्मीर में सुनंदा की जो पैतृक संपत्ति थी वो उस संपत्ति को अपने बेटे के नाम नहीं कर सकती थीं। इसका कारण फिर 35ए था। 

बच्चों के साथ भी भेदभाव
2002 के केस के बाद महिलाओं के पीआरसी से "विवाह तक वैध" लिखना भले ही बंद कर दिया था, पर उनके बच्चो को पीआरसी नहीं दिया जाता था। नतीजतन, इन महिलाओं के बच्चे अपनी मां की संपत्ति से वंचित रह जाते थे। मां का पीआरसी होने बाद भी ये जम्मू कश्मीर में ना तो संपत्ति खरीद और ना ही बेच सकते थे और ना ही चल अचल संपत्ति का वारिस बन सकते थे। वो व्यापार शुरू नहीं कर सकते थे और राज्य सरकार में नौकरी भी नहीं कर सकते थे। ना तो सरकार द्वारा संचालित शिक्षा संस्थान में पढ़ सकते थे, ना ही किसी बैंक से लोन ले सकते थे, न वो किसी प्रकार की स्कॉलरशिप प्राप्त कर सकते थे, ना ही राज्य में चुनावों में वोट डाल सकते थे और चुनाव लड़ भी नहीं सकते थे, वो राज्य और केंद्र सरकार की किसी भी योजनाओं का लाभ नहीं उठा सकते थे। यहां तक कि यदि वे केंद्रीय सुरक्षाबल में या भारतीय सेना में भर्ती होना चाहें तो वो भी नहीं कर सकते थे। संक्षेप में कहें तो वो हर सुविधा और हर अधिकार से खुद को वंचित पाते थे, जो एक आम नागरिक को हमारा संविधान प्रदान करता है। 
राज्य में ऐसे परिवार भी दिखे जहां सास और बहू के पास पीआरसी है, लेकिन ससुर और बेटे के पास पीआरसी नहीं। परिवार की दोनों महिलाओं के पास पीआरसी होने के बाद भी उनके बच्चों को पीआरसी नहीं मिलता था। ऐसे ही एक परिवार में जब तीसरी पीढ़ी का बेटा इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेने गया तो मेरिट में होने के बावजूद उसे खली हाथ लौटा दिया गया क्योंकि उसकी दादी और मां तो पीआरसी वाले हैं पर उसके दादा और पिता के पास पीआरसी नहीं। अपने भविष्य के सपने ताक पर रख ये लड़का लॉ की पढ़ाई करने लगा। पर ये पढ़ाई भी उसके काम नहीं आई क्योंकि पीआरसी न होने के चलते उसे जम्मू-कश्मीर बार एसोसिएशन की सदस्यता नहीं मिली, जिससे वो वो उच्च न्यायालय में वकालत नहीं कर पाया। एक तरह से उसकी वकालत का काम भी 35ए की बलि चढ़ गया। 

राजनेतओं की कुटिल चाल
साल 2002 में कोर्ट ने ये आदेश तो दे दिया कि गैर पीआरसी वाले व्यक्ति से या राज्य से बाहर शादी करने वालीं महिलाओं के पीआरसी को समाप्त नहीं किया जा सकता है । परन्तु असुरक्षित मानसिकता वाले राजनेताओं को ये महिला-पुरुष समानता की बात रास नहीं आई। कोर्ट के आदेश की अवहेलना करते हुए 2004 में तत्कालीन पीडीपी सरकार एक नया बिल विधान सभा में लेकर आई, यह था द डिसक्वॉलिफिकेशन बिल अर्थात अयोग्यता बिल, जिसका ध्येय था उन सभी महिलाओं को, जो राज्य से बाहर शादी करती हैं, उन्हें अयोग्य पीआरसी के लिए घोषित करना। इस बिल को नेशनल कॉन्फ्रेंस का भी पूरा समर्थन प्राप्त था। इस बिल को दोनों पार्टियों ने मिलकर विधान सभा में तो पारित करवा लिया पर विधान परिषद में ये बिल पास नहीं हो पाया। 

अब्दुल्ला परिवार 
उदाहरण के तौर पर जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्लाह की पत्नी ब्रिटिश नागरिक थीं पर फारूख अब्दुल्लाह से शादी के बाद वे भी पीआरसी धारक बन गईं और उन्हें सारे अधिकार मिल गए। वे चाहें तो राज्य के चुनाव भी लड़ सकती थीं। इसी प्रकार उनके बेटे उमर अब्दुल्लाह ने भी राज्य से बाहर की महिला से शादी की, उनकी पत्नी को भी पीआरसी मिल गया। वहीं दूसरी ओर फारुख अब्दुल्ला की बेटी सारा का विवाह सचिन पायलट से हुआ जो राज्यस्‍थान के रहने वाले हैं। (सचिन पायलट कांग्रेस नेता हैं और राजस्थान के उपमुख्यमंत्री हैं।) ‌इन दोनों की संतानें यदि चाहतीं तो भी जम्मू-कश्मीर में पढ़ाई नहीं कर सकती थीं, वहां कोई नौकरी नहीं कर सकती थीं, वहां पर जमीन नहीं खरीद सकती थीं। फारूक अब्दुल्लाह की संपत्ति से सारा को अगर उन्हें हिस्सा मिल भी जाता तो भी वह वह अपने इस हिस्से को अपने बच्चे को ट्रांसफर नहीं कर सकती थीं।
 


वाल्मीकि समाज की महिलाओं के हालात और भी भयानक
1957 में पंजाब से कश्मीर लाए गए वाल्मीकि समाज को जम्मू कश्मीर में केवल सफाई कर्मचारी के नौकरी मिलती थी और इस समाज की महिलाओं के हालात और भी खराब रहे। पीआरसी न होने के कारण आज यदि इस समाज की लड़की पढ़-लिख कर कोई नौकरी करना चाहे तो वो नहीं कर पाती थी। राधिका गिल खेल-कूद में अव्वल नंबर पर रहती थी, एक बहुत अच्छी धाविका रही और कई पदक और पुरस्कार जीत चुकी हैं। 12वीं पास कर राधिका बीएसएफ में भर्ती होना चाहती थी। भर्ती होने के लिए सभी परीक्षाएं उत्तीर्ण करने के बाद राधिका को इस केंद्र सरकार की नौकरी में भी जगह इसलिए नहीं मिली क्योंकि वो वाल्मीकि समाज से हैं और उसके पास पीआरसी नहीं थी। ऐसे सामाजिक और लैंगिक भेदभाव का उदहारण आपको देश में कहीं नहीं मिलेगा। 


संविधान में मिलता है संपत्ति का हक 
भारत के संविधान के तहत पिता की संपत्ति में बेटियों को (शादी से पहले भी और शादी के बाद भी) बराबर का हक मिलता है, लेकिन कश्मीर का अलग विधान होने के कारण यह हक बेटियों को नहीं मिलता था। उदाहरण के तौर पर जम्मू-कश्मीर की कोई महिला अगर भारत के किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से विवाह कर ले तो उस महिला की नागरिकता समाप्त हो जाती थी। इसके विपरीत यदि वो पकिस्तान के किसी व्यक्ति से शादी कर ले तो उसे व्यक्ति को भी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल जाती थी। वहीं, कश्मीर में महिलाओं पर शरियत कानून लागू है।
- Story by Sunita Kapoor