राजस्थान की चार आदिवासी महिलाओं ने सीताफल ( शरीफा) बेचकर खुद के दम से खड़ी की करोड़ों की कंपनी
बचपन से ही वे जंगलों में लकड़ी बीनने जाती थी, वहां, गिरते सीताफल देखकर उन्हें बहुत खराब सा महसूस होता था, तभी से वे सोचने लगीं कि क्यों ना इतने महंगे फल का कुछ किया जाए और बड़े होने पर जब उन्हें समझ आई तो इन निरक्षर आदिवासी महिलाओं ने अपनी कंपनी खोली और आज उनकी यह कंपनी करोड़ों काप टर्नओवर करती है।
हम बात कर रहे हैं राजस्थान के पाली इलाके की रहने वालीं जीजा बाई, सांजी बाई, हंसा बाई और बबली की। बचपन की ये पक्की सहेलियां रोज जंगल में खाना बनाने के लिए सूखी लकड़ी बीनकर लाती थीं। रोज ये देखतीं कि कैसे जंगल के बहुत से सीताफल के पेड़ों पर से फल सूख कर गिर जाते हैं। पर उन्हें कोई तोड़ने वाला नहीं है। जंगल के इस दृयश् को देखते हुए ये बड़ी हो रहा थीं कि एक दिन अचानक इन महिलाओं ने जब सीताफल को इस तरह सूख कर गिरते देखा तो इनके मन में एक नया विचार आया... कि क्यों ना इस सीताफल को बेचा जाए। फिर क्या था, ये महिलाएं सीताफल को हर रोज तोड़कर टोकरी में भरतीं और सड़क किनारे बैठ जातीं। वहां से गुजरने वाले लोग इनसे सीताफल खरीदने लगे। उन्होंने देखा कि इन फलों को लोग खूब पसंद कर रहे हैं और इनकी मांग जब भारी मात्रा में होने लगी तो है तो इन महिलाओं को काफी मुनाफा होने लगा। बस फिर तो इन्होंने जंगलों में सूख कर गिर जाने वाले फल को अपनी आमदनी का जरिया बना लिया।
अपने दम पर खोल ली कंपनी
इन महिलाओं ने डिमांड को देखते हुए भीमाणा-नाणा में ‘घूमर’ नाम की अपनी कंपनी बना ली। उसके बाद इन्होंने अपने इलाके के आदिवासी लोगों को जोड़ना शुरू कर दिया। कंपनी से जुड़ने वाले लोग हर रोज जंगलों से सीताफल बीन कर लाते और ये महिलाएं उनसे खरीदारी करने लगीं। अब ये खुद जंगल में सीताफल तोड़ने नहीं जाती थीं, बल्कि इन्होंने और लोगों को रोजगार दिया। इससे आदिवासी लोगों को फायदा होने लगा तो इन महिलाओं की कंपनी से और भी लोग बड़े पैमाने पर जुड़ते चले गए।
साल भर में एक करोड़ सलाना कमाई
देखते ही देखते इन महिआलों की ‘घूमर’ कंपनी साल भर में एक करोड़ सलाना टर्नओवर तक पहुंच गई। दरअसल, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सीताफल आइसक्रीम बनाने के काम में भी आता है। ऐसे में आइसक्रीम बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों ने इनसे संपर्क किया और आज वह इनसे सीताफल बड़े पैमाने पर खरीदती हैं। साथ ही लाखों का भुगतान करती हैं। आज इनका फल राष्ट्रीय स्तर तक की कंपनियां खरीदती हैं। इससे इनका काम बढ़ता ही जा रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक राजस्थान के ही पाली इलाके में आज ढाई टन सीताफल का कारोबार होता है। आदिवासी महिलाएं पहले तो सीताफल को ऐसे ही बेच देती थी, लेकिन अब वह उसका पल्प भी निकालकर बेचती हैं, जिससे कंपनी उन्हें ज्यादा दाम देती है। ये सब तक हुआ जब उन्हें एक एनजीओ की मदद मिली। एनजीओ की मदद से उन्होंने महिलाओं का एक ग्रुप बनाया और कंपनी शुरू कर दी। आज सीताफल का प्रयोग खाने और आइसक्रीम में डालने के लिए प्रयोग होता है।
महिलाओं को मिला रोजगार
कंपनी को चलाने वाली सांजीबाई बताती हैं कि आज उनकी कंपनी में बहुत-सी महिलाएं काम भी करती हैं। इसके बदले उन्हें रोजाना 150 रुपये मजदूरी दी जाती है। सांजीबाई कहती हैं कि आज उन्होंने 21 लाख रुपये लगाकर ‘पल्प प्रोसेसिंग यूनिट’भी शुरू की है, जिसका संचालन केवल महिलाएं करती हैं। सरकारी मदद के तौर पर उन्हें 'सीड कैपिटल रिवॉल्विंग फंड' भी दिया जाता है। आज वह रोजाना 60 से 70 क्विंटल सीताफल का कारोबार करती हैं, जिसे 60 छोटे-छोटे सेंटर बनाकर इकठ्ठा किया जाता है। वह कहती हैं कि इससे गरीब महिलाओं को काम भी मिल रहा है और वह अपना गुजारा भी खुद से चला रही हैं।
कंपनी ने दिए कई गुना दाम
सीताफल को बेचने वाली आदिवासी महिलाएं बताती हैं कि जब वह टोकरी में सीताफल बेचती थीं तो बाजार में उन्हें महज 8 से 10 रुपये किलो ही दाम मिलता था। लेकिन आज जब वह प्रोसेसिंग यूनिट लगाकर फल बेचती हैं तो उन्हें 160 रुपये किलो तक दाम मिल रहा है। साथ ही बड़ी-बड़ी कंपनियां फल की बड़े पैमाने पर खरीद भी कर रही हैं।
नोट : सीताफल या शरीफा शरद और शीत ऋतु में मिलने वाला एक गुणकारी फल है। कहा जाता है कि वनवास के समय यह फल सीता माता ने भगवान श्रीराम को भेंट किया था, जिसकी वजह से इस फल का नाम सीता फल हुआ। इसे शरीफा भी कहा जाता है।
- story by sunita kapoor
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.