हिमाचल की बक्शो देवी ने 15 साल की उम्र में नंगे पांव दौड़कर गोल्ड मेड़ल जीतकर दिखा किया कि सपनों को पूरा करने का जूनून होना चाहिए। मंजिलें मुश्किल ही सही, मिलती जरूर है।
दिल्ली। पहाड़ियों और जंगलों से घिरा हिमाचल प्रदेश पर्यटकों के लिए एक पसंदीदा पर्यटन स्थल है। यहां शहरों के मुकाबले संसाधन बेहद कम हैं, लेकिन यहां प्रतिभाओं की कमी नहीं हैं। ऐसा ही एक उदाहरण हिमाचल के ऊना जिले के ईसपुर गांव की बक्शो देवी। बक्शो के पिता नहीं हैं। आर्थिक स्थिति भी बहुत ज्यादा अच्छी नहीं है। लेकिन इस सबके बावजूद बक्शो में गजब की हिम्मत और हौसला है। आज से चार साल पहले बक्शो की उम्र जब महज पंद्रह साल थी, तो उन्होंने जिला स्तरीय एथेलेटिक्स में पांच हजार मीटर की दौड़ में बिना जूतों के नंगे पांव दौड़कर स्वर्ण पदक जीतकर दिखा दिया कि मुश्किलें सफलता का ग्राफ और बढ़ा देती हैं। परिवार आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण बक्शो देवी को दौड़ के लिए जूते भी नसीब नहीं हुए, लेकिन उसने नंगे पांव दौड़ कर ही जीत हासिल कर ली | बक्शो ने पहली बार दौड़ में हिस्सा लिया था और प्रतियोगिता के आखिरी वक्त में उसे पित्ताशय के तेज दर्द को सहते हुए हिम्मत नहीं हारी और रेस में जीत की मला अपने नाम कर ली। बक्शो की खेल के प्रति गजब की रूचि है। वह भविष्य की पीटी ऊषा बनना चाहती हैं।
घर के कामकाज में बटांती हैं हाथ
बक्शो को न अच्छे एथलेटिक्स की तरह खाना नसीब हुआ है और न कोचिंग, लेकिन फिर भी वह बेहतर कर रही हैं। पिता की मौत के बाद मां ने परिवार के लिए कमाना शुरू किया। मां की मदद से ही उनकी पढ़ाई चल रही है। बक्शो मां के साथ घर के सभी कामों में हाथ बंटाती हैं और घर से बाहर के कार्यों को भी पूरा करने में पीछे नहीं हटतीं। उनका कहना है कि बेटियां किसी से कम नहीं होतीं। एक दिन वह देश की सफल खिलाड़ी बनकर जरूर दिखाएंगी।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.