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‘बाप-दादा सब गाली सहबो, हम न सहबो हो भइया’

Published - Thu 20, Feb 2020

भगवती देवी जंगल और खेतों में मजदूरी किया करती थीं। पहाड़ों में काम करते हुए उसने चट्टानों को तोड़ा, लेकिन उसके फौलादी इरादों को जातिगत भेदभाव और अभाव से पैदा हुए झंझावत कभी डिगा नहीं सके। मजदूरी कर परिवार का लालन-पालन करने वाली भागवती देवी चार बार विधायक बनीं और जब संसद पहुंचीं तो वहां भी वे मजदूरों के हितों के लिए गरजीं।

Bhagwati Devi

नई दिल्ली। भगवती देवी पत्थर तोड़ती थीं और परिवार का लालन-पालन करती थीं। भगवती उस परिवार से आती हैं, जिसमें लोग चूहे पकड़ने और उनसे ही अपना पेट भरने का काम करते हैं।  इन सारे सामाजिक ताने-बाने के बीच भी उन्होंने न तो कभी हिम्मत हारी और न ही अपने हक की आवाज को दबने दिया। वह समाज में मजदूरों के हितों के लिए हमेशा आवाज बुलंद करती रहीं। यही कारण था कि समाज के दबे-कुचले माने जाने वाले तबके की जन नेता बन कर उभरीं।
उनके राजनीति में आने की कहानी बहुत ही दिलचस्प है, बिलकुल वैसी ही, जैसी कहानियां हम फिल्मी परदे पर देखते हैं। बात 1968 की है, एक दिन भगवती देची गांव नैली दुबहल में सड़क किनारे पत्थर तोड़ने का काम कर रहीं थी, तभी उस समय के कद्दावर समाजवादी नेता उपेंद्र नाथ वर्मा गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि पत्थर तोड़ने वाली यह महिला आठ दस अन्य मजदूरों के सामने भाषण दे रही है, वह भी उनके अधिकारों, मजदूरी को लेकर। उन्होंने वाहन रुकवाया और पूरी बात ध्यान से सुनने लगे। भागवती का भाषण खत्म हुआ तो उपेन्द्र नाथ वर्मा उनके पास आए और बोले- तुम्हें तो राजनीति में आना चाहिए। तुम्हें इस संघर्ष को समाज से संसद तक ले जाना होगा।
 
हम न सहबो हो भइया...गीत गाते ही मिला टिकट

उपेन्द्र नाथ वर्मा ने उन्हें राम मनोहर लोहिया से मिलवाने के लिए दिल्ली बुला लिया। यहां तालकटोरा स्टेडियम में एक कार्यक्रम होना था, मंच पर भागवती देवी को कुछ बोलने के लिए कहा गया। गांव से आई इस महिला ने जैसे ही एक गीत गाया- ‘हम न सहबो हो भइया, हम न सहबो हो, बाप-दादा सब गाली सहबो, हम न सहबो हो भइया’ पूरा स्टेडियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। लोहिया जी ने सोशलिस्ट पार्टी,  जिसका बरगद चुनाव चिह्न था, से टिकट देकर बाराचट्टी विधानसभा सीट से भगवती देवी को चुनाव लड़वाया। भागवती देवी चुनाव जीतीं और पहली बार विधानसभा पहुंचीं। इसके बाद 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतीं। हालांकि यह सरकार लगभग दो ही साल चल सकी। वर्ष 1980 में भगवती देवी चुनाव हार गईं तो राजनीति से दूर चलीं गईं और फिर से मजदूरी करने लगीं। समय निकालकर मजदूरों के उत्थान में भी जुटतीं। 1995 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने फिर भगवती देवी को बुलाकर गया (सुरक्षित) सीट से टिकट दिया और वह एक बार फिर विधायक बनीं। एक साल बाद 1996 में जनता दल ने उन्हें गया से लोकसभा की जंग में उतार दिया। भगवती देवी यहां से जीतकर दिल्ली पहुंच गईं। तब उन्होंने भाजपा के कृष्ण कुमार चौधरी को हराया था। हालांकि 1998 में हुए चुनाव में भाजपा उम्मीदवार कृष्ण कुमार चौधरी ने राष्ट्रीय जनता दल उम्मीदवार भगवती देवी को पराजित कर दिया।
 
महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण के लिए आवाज उठाई

कई बार चुनाव जीतने के बाद भी भागवती में कोई गुमान नहीं था। वे बिल्कुल सादगी भरा जीवन जीती थीं। संसद में पहुंचने वाली भगवती देवी की कहानी बाकी सांसदों से काफी अलग है। एक पत्थर तोड़ने वाली महादलित समाज की महिला संसद में पहुंचीं। न सिर्फ वह सांसद बनीं बल्कि अपने संसदीय जीवन में महिलाओं अधिकारों की आवाज बनीं। उन्होंने लोकसभा विधानसभा में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिए जाने के लिए आवाज भी उठाई।
 
धरती की बेटी

भगवती देवी के जीवन पर एक पुस्तक आई 'धरती की बेटी', जिसे राम प्यारे सिंह ने लिखा है। खाली समय में वे सत्संग में हिस्सा लेती थीं। उनकी तीन बेटियां और एक पुत्र हैं। भागवती के बेटे विजय मांझी भी राजनीति में हैं। उनकी बेटी समता देवी 1998 के उप चुनाव और 2015 के विधानसभा चुनाव में विधायक बनीं।