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स्वास्थ्य सेवा के लिए शहर के बजाय गावों को चुना

Published - Fri 20, Mar 2020

निराशा का गड्ढा माने जाने वाले इस अस्पताल को वर्ष 2015 में, बिहार में सबसे अच्छा जिला अस्पताल होने के लिए भारत सरकार से कायाकल्प पुरस्कार मिला।

dr. taru zindal

डॉ. तारू जिंदल

​बिहार जाने के दौरान मैंने मोतिहारी जिले में दो हफ्तों में कई मौतें देखीं। अधिकांश डॉक्टर मरीजों को अपने निजी क्लिनिक में देख रहे थे। निराशावश मैंने एनजीओ को पत्र लिखकर काम छोड़ने के लिए कहा। इस पर उन्होंने मुझे जवाब दिया कि इन्हीं समस्याओें के समाधान के लिए आपको वहां भेजा गया था। अगर सब कुछ सही होता, तो आपकी क्यों जरूरत पड़ती। उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं चली गई, तो शायद मेरा हल मिल जाएगा, लेकिन माताओं और शिशुओें के लिए यही स्थिति रहेगी। मैंने तय किया कि मैं वहीं रहकर काम करूंगी। मेरा जन्म मुंबई में हुआ। मैं एक उच्च शिक्षित परिवार में पली-बढ़ी हूं। मेरे पिता भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर में न्यूक्लियर साइंटिस्ट थे। मैंने मुबई में एमबीबीएस और एमडी किया। और अब स्त्री रोग विशेषज्ञ और स्तनपान सलाहकार के तौर पर काम कर रही हूं। स्कूल पढ़ाई के दौरान स्ट्रोक से पीड़ित दादी की देखभाल करना मेरा काम था। मेरे भाई, जो कि डॉक्टर हैं, ने मुझे दादी का इलाज करने के लिए मौलिक चिकित्सा ज्ञान सिखाया। दादी की देखभाल करते-करते मुझे एहसास हुआ कि मैं एक अच्छी डॉक्टर बनूंगी। पढ़ाई के दौरान ही मैं अपने पति डॉ. धर्म शाह से मिली। वह कॉलेज में मेरे सीनियर थे और मुझसे पूछते थे कि क्या हमें मुंबई में रहकर स्वास्थ्य सेवाएं देनी चाहिए, जहां पहले से ही डॉक्टरों, विशेषज्ञों की भीड़ मौजूद है। या फिर उन ​इलाकों में जाकर काम करना चाहिए, जहां हमारी आवश्यकता है। इस बीच, मुझे बिहार में एक प्रोजेक्ट मिला, जिसे मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने शुरू किया था। इसका उद्देश्य बिहार के जिला अस्पतालों में जाकर डॉक्टरों को स्त्री रोग की पहचान के लिए प्रशिक्षित करना था। मुझे पूर्वी चंपारण जिले के मोतिहारी जिला अस्पताल में डॉक्टरों और नर्सों को प्रशिक्षित करने के लिए भेजा गया था। एक दिन मैं जिला अस्पताल पहुंची तो अंदर, मैंने देखा कि एक महिला अपने नंगे हाथों से प्रसव करवा रही थी। महिला ने मां की साड़ी से बच्चे को साफ करने के बाद एक कपड़े में बच्चे को लपेट दिया। अत्यधिक विचलित कर देने वाला समय तब आया, जब प्रसव के ठीक बाद मैंने उसी दाई को कूड़ा उठाते हुए देखा। मैंने महसूस किया कि वह डॉक्टर या नर्स नहीं थी; वह अस्पताल की नौकरानी थी।
उस घटना के बाद डॉक्टरों की अनुपस्थिति से बेपरवाह, मैंने हर दिन अस्पताल के कर्मियों को प्रशिक्षित करना शुरू किया। अंतत: प्रबंधन और सरकारी मदद से हम अस्पताल में उपकरण और दवा के स्टॉक की समुचित उपलब्धता सुनिश्चित करने में सफल रहे। मैंने महसूस किया कि चिकित्सा क्षेत्र के लिए पैसे की कमी नहीं थी, कमी एक स्पष्ट दिशा की कमी थी। आखिरकार, स्थानीय प्रशासन ने हमारा सहयोग किया, तो कुछ माह में ही हम वहां दस शौचालय व एक बगीचे के निर्माण के साथ ऑपरेशन व लेबर रूम का जीर्णोद्धार करने में सफल रहे। निराशा का गड्ढा माने जाने वाले इस अस्पताल को वर्ष 2015 में, बिहार में सबसे अच्छा जिला अस्पताल होने के लिए भारत सरकार से कायाकल्प पुरस्कार मिला। 
2015 मैं हम मुंबई वापस आ गए। लेकिन बिहार की यादें लगातार मेरे जेहन में चलती रहती थीं। मैं अंतत: बिहार वापस आ गई। और पटना जिले के एक सुदूर गांव में स्वास्थ्य देखभाल केंद्र शुरू किया। इस स्वास्थ्य केंद्र के माध्यम से, हमने करीब 50 गांवों के आठ हजार से अधिक लोगों का इलाज किया है। हालांकि ब्रेन ट्यू​मर का पता चलने के बाद मुझे बिहार छोड़ना पड़ा। लेकिन अपने इलाके साथ अब भी मैं स्वास्थ्य केंद्र के संपर्क में हूं और उन्हें स​हयोग करती हूं।