सफलता संसाधनों की मोहताज नहीं होती। आईएएस सुरभि गौतम के बारे में जानने के बाद यह बात खुद-ब-खुद आपकी जुबान से निकल जाएगा। सुरभि एक ऐसे गांव से ताल्लुक रखती हैं, जहां न तो अच्छा स्कूल है और न तो इस गांव की बेटियां 12वीं के बाद पढ़ाई के लिए गांव से बाहर जाती थीं। सुरभि के तकरीबन 30 लोगों के संयुक्त परिवार में बच्चों की पढ़ाई पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। इसके बावजूद सुरभि ने मन लगाकर पढ़ाई की और आगे बढ़ती रहीं। वह अपने गांव की पहली लकड़ी थीं जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए गांव से शहर गईं। यह सुरभि की लगन ही थी कि सामान्य से हिंदी मीडियम स्कूल में प्रारंभिक शिक्षा के बावजूद पहले ही प्रयास में न केवल आईएएस, बल्कि गेट, इसरो, एमपीपीएससी को भी क्लीयर किया। आइए जानते हैं आईएएस सुरभि के शून्य से सफलता के सर्वोच्च तक के सफर के बारे में...
नई दिल्ली। सुरभि गौतम मध्य प्रदेश के सतना जिले के एक छोटे से गांव अमदरा की रहने वाली हैं। उनके पिता मैहर जिला अदालत में वकालत करते हैं। वहीं, मां डॉ. सुशीला गौतम अमदरा हायर सेकंडरी स्कूल में शिक्षिका हैं। अमदरा की आबादी बामुश्किल एक हजार लोगों की होगी। सुरभि का परिवार रूढ़िवादी सोच का है। इस कारण उनके जन्म पर परिवार को कोई खास खुशी नहीं हुई। हालांकि उनके माता-पिता बेटी के जन्म से काफी खुश थे। सुरभि के परिवार में उस समय कुल 30 सदस्य थे, जिनमें कई बच्चे भी शामिल थे। पांच साल ही होने पर सुरभि भी परिवार के अन्य बच्चों की तरह अमदरा स्थित टाट-पट्टी वाले एक साधारण हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ने जाने लगीं। उनका बचपन आम साधारण बच्चों जैसा ही गुजरा।
शिक्षक की तारीफ ने बदल दी जिंदगी
सुरभि का परिवार काफी बड़ा था। इस वजह से सभी अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते थे। उनके पास बच्चों पर ध्यान देने का वक्त ही नहीं था। सुरभि जब कक्षा 5वीं में थीं तो उनका बोर्ड का रिजल्ट आया। जिसमें उनके गणित में 100 में 100 नंबर आये थे। सुरभि की कॉपी देखकर शिक्षक ने उनकी काफी तारीफ की और यह कहते हुए प्रेरित किया कि तुम आगे और भी अच्छा करने की क्षमता रखती हो। यह सुरभि की जिंदगी का पहला मौका था कि उन्हें किसी ने नोटिस किया था। बस उसी पल वह समझ गईं की अगर लोगों का आकर्षण पाना है और अपनी अहमियत बनाए रखना है, तो पढ़ाई ही एकमात्र तरीका है। उस दिन से सुरभि ने भीड़ से अलग अपनी पहचान बनाने के लिए पढ़ाई को जरिया बनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
बचपन में यूं ही कह दिया था कलेक्टर बनूंगी, सही साबित की बात
सुरभि जैसे-जैसे आगे की कक्षाओं में बढ़ती गईं, उनका रिजल्ट बेहतर होता गया। कक्षा 10वीं की बोर्ड परीक्षा में उन्होंने गणित के साथ विज्ञान में भी 100 में 100 अंक हासिल किए। पूरे प्रदेश में उनकी रैंक काफी अच्छी थी। रिजल्ट के बाद एक पत्रकार सुरभि का इंटरव्यू लेने उनके घर पहुंचा। उसने सुरभि से पूछा बड़ी होकर आप क्या बनाना चाहती हैं ? यह सवाल सुनकर सुरभि कुछ देर के लिए शांत हो गईं। दरअसल, अब तक उन्होंने कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं था कि किस क्षेत्र में कॅरियर बनाना है। दोबारा पूछने पर बोलीं, पता नहीं। इस बीच आस-पास मौजूद घरवालों ने टोका की यह क्या जवाब हुआ, तो वह थोड़ा घबरा गईं। हड़बड़ी में दिमाग में कलेक्टर शब्द आया तो कहा दिया कि बड़ी होकर कलेक्टर बनूंगी। अगले दिन अखबार में इसी हेडिंग से खबर छप गई। अखबार में छपी इस खबर ने सुरभि के दिमाग में गहरी छाप छोड़ी और वह अपने लक्ष्य को लेकर फोकस हो गईं।
पढ़ाई के लिए गांव से बाहर जाने वाली पहली लड़की थीं सुरभि
सुरभि पढ़ाई में लगातार कमाल कर रही थीं और उनको पीसीएम में सबसे ज्यादा अंक लाने के कारण एपीजे अब्दुल कलाम स्कॉलरशिप भी मिल गई थी। कक्षा 12वीं के बाद सुरभि ने स्टेट इंजीनियरिंग का एंट्रेंस एग्जाम दिया। परीक्षा में अच्छे नंबर आने के कारण वह शहर के किसी भी सरकारी कॉलेज में दाखिला लेने के लिए मान्य हो गईं। सुरभि गांव से बाहर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए गईं और वहां की पहली लड़की बनी जो गांव से बाहर पढ़ने गई। सुरभि ने भोपाल से इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन्स में इंजीनियरिंग की। यहां भी उन्होंने टॉप करने की आदत नहीं छोड़ी और गोल्ड मेडल हासिल करने के साथ-साथ यूनिवर्सिटी में टॉप किया। हालांकि, यह इतना आसान नहीं रहा। गांव से निकलकर यकायक शहर के एक बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज के मुताबिक खुद को ढालने में सुरभि को काफी परेशानी हुई। शुरुआती दिनों में वह क्लास में टीचर्स से छिपती रहती थीं। दरअसल, एक गांव की लड़की के लिए सब कुछ बहुत नया और अनोखा था, खासकर अंग्रेजी भाषा। क्लास के सभी बच्चे जहां फर्राटेदार अंग्रेजी में बात करते थे, वहीं सवाल का जवाब मालूम होने के बाद भी अंग्रेजी कमजोर होने के कारण सुरभि उनका जवाब नहीं दे पाती थीं।
मां से फोन कर रोते हुए कहा था वापस आ रही हूं घर
अंग्रेजी कमजोर होने और सबकुछ नया होने के कारण सुरभि लैब में एक्सपेरिमेंट नहीं कर पाईं। इससे वह काफी हताश हो गईं। वह हॉस्टल आकर खूब रोयीं और मां के पास फोन करके कहा कि वापस आ रही हूं। तब बेटी को ढांढस बंधाते हुए मां ने बस इतना ही कहा कि, अगर तुम वापस आ गई तो गांव की बाकी लड़कियों के लिए हमेशा के लिए रास्ता बंद हो जाएगा। मां की इस बात ने सुरभि को झकझोर दिया। उन्होंने तय किया की चाहे जो हो जाए अंग्रेजी पर कमांड करके ही रहेंगी। उस दिन से वे दिन-रात मेहनत करने लगीं और रिजल्ट कुछ ही दिनों में सामने था।
एक के बाद एक सात परीक्षाएं की पास
सुरभि कॉलेज से निकलीं तो यूपीएससी के लिए उनकी उम्र कम थी। इस कारण वह बार्क (BARC) से एक साल तक न्यूक्लियर साईंटिस्ट के तौर पर जुड़ी रहीं। इस बीच गेट (GATE), इसरो (ISRO) की परीक्षाएं दी और इसमें ऑल इंडिया में दूसरा स्थान हासिल किया। सेल (SAIL) की परीक्षा भी पास की। उन्हें नौकरी के लिए कॉल भी आया, लेकिन उन्होंने ज्वाइन नहीं किया। एमपीपीएससी (MPPSC), एसएससी एलजीएल (SSC LGL), दिल्ली पुलिस और एफसीआई (FCI) की परीक्षाएं अच्छे नंबरों से पास कीं। 2013 के आईईएस (IES) एग्जाम में सुरभि को ऑल इंडिया में फर्स्ट रैंक मिली। आईईएस में उनके जितने अंक आये थे, यूपीएससी के इतिहास में कभी किसी लड़की के नहीं आए थे। सुरभि ने ट्रेनिंग ज्वॉइन कर ली। इतना सब पाने के बाद भी सुरभि को जो खुशी, जो संतोष महसूस होना चाहिए था, वो नहीं होता था। मन में एक बेचैनी सी रहती थी। उन्होंने इस बारे में मां को बताया तो उन्होंने बचपन में कही गई कलेक्टर वाली बात याद दिलाई। तब सुरभि को लगा कि इसी की कमी है जो उन्हें अखर रही थी।
मां की प्रेरणा से मिला हौसला
नौकरी के लिए ट्रेनिंग करते वक्त सुरभि को आईएएस की तैयारी के लिए मुश्किल से तीन या चार घंटे का समय ही मिलता था। इस कारण वह काफी परेशान थीं। इस बारे में उन्होंने अपनी मां से बात की। उन्हें लगा मां उन्होंने सांत्वना देंगी, लेकिन इसकी बजाय मां ने कहा, तुम्हारी उम्र में मेरे तीन बच्चे थे, 30 लोगों का परिवार था, घर से 10 किलोमीटर दूर नौकरी करने जाती थी और एलर्जी की भयंकर समस्या थी फिर भी कभी कोई शिकायत नहीं की। अब तुम खुद सोच लो कि क्या तुम्हारा संघर्ष ज्यादा बड़ा है या जो मैंने किया था वह। मां ने दो-टूक लहजे में कहा, तुम जो कर रही हो केवल अपने सपने के लिए कर रही हो, अब फैसला तुम्हारा है। सुरभि ने उस दिन के बाद से शिकायत करना बंद कर दिया। अपने फोन और टैबलेट पर जितना हो सका स्टडी मैटेरियल इकट्ठा किया और रास्ते से लेकर नौकरी तक में जब समय मिलता था पढ़ती थीं। घंटों से मिनट चुराए उन्होंने। नतीजा यह हुआ कि साल 2016 में उन्होंने 50वीं रैंक के साथ अपने बचपन का सपना आखिरकार पूरा कर लिया।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.