आज भले ही 21वीं सदी में खड़े हों, लेकिन कई मामलों में हमारी सोच सालों पुरानी है। महिलाओं को लेकर भी कई लोगों के दिमाग में ऐसी ही धारणा है। उन्हें लगता है कि कुछ सेक्टर सिर्फ पुरुषों के लिए ही हैं। पुरुषों के वर्चस्व और लोगों की धारणा को तोड़ने का काम किया है आगरा में तैनात इन बेटियों ने। इन बेटियों ने जब रेलवे को ज्वाइन करने और ट्रेन चलाने की बात कही तो खुद उनके साथियों ने कहा कि 'ट्रेन चलाना लड़कियों का काम नहीं।' लेकिन इन्होंने अपने इरादे नहीं बदले और मनचाहा मुकाम हासिल किया। आइए जानते हैं कुछ ऐसी ही बेटियों के बारे में...
आगरा। हम आज भले ही 21वीं सदी में खड़े हों, लेकिन कई मामलों में हमारी सोच सालों पुरानी है। महिलाओं को लेकर भी कई लोगों के दिमाग में ऐसी ही धारणा है। उन्हें लगता है कि कुछ सेक्टर सिर्फ पुरुषों के लिए ही हैं। इन्हें महिलाएं नहीं संभाल सकतीं। पुरुषों के वर्चस्व और लोगों की धारणा को तोड़ने का काम किया है आगरा में तैनात इन बेटियों ने। इन बेटियों ने जब रेलवे को ज्वाइन करने और ट्रेन चलाने की बात कही तो खुद उनके साथियों ने कहा कि 'ट्रेन चलाना लड़कियों का काम नहीं।' दोस्तों से ऐसी बातें सुनकर भी ये बेटियां निराश नहीं हुईं और अपना मनचाहा मुकाम हासिल कर दकियानूसी सोच को करारा जवाब दिया। आज आगरा रेल मंडल में ट्रेनों का संचालन सिर्फ पुरुषों के हाथ में नहीं है। महिलाएं गार्ड से लेकर ट्रेन चलाने तक का काम कर रही हैं। सफलता का सफर मुश्किल जरूर था, लेकिन इन्होंने खुद को साबित कर इसे पूरा किया। बुलंद हौसले वाली इन बेटियों के मुताबिक, महिलाओं को मौका देकर देखिए, कोई भी काम असंभव नहीं है।
मनीषा मीणा के पिता सुआलाल किसान हैं। उन्होंने कभी बेटा-बेटी में फर्क नहीं किया। मनीषा के मुताबिक उन्होंने हम दोनों बहनों को भी भाई के साथ पढ़ाया। पॉलीटेक्निक करने के बाद रेलवे में जब लोको पायलट की जॉब लगी तो परिचितों के साथ सहकमियों ने भी कहा कि तुम टीचर बन जाओ। ट्रेन चलाना जिम्मेदारी का काम है, यह महिलाओं के लिए नहीं है, लेकिन मैंने अपने काम पर फोकस किया। अब पैसेंजर ट्रेन का संचालन करती हूं। पिता को यकीन था कि मैं ऐसा कर सकती हूं। मैं जब ट्रेन चलाती हूं तो मुझे खुद पर गर्व होता है।
ट्रेनों में पहले पुरुष ही गार्ड हुआ करते थे, लेकिन मैंने ठान लिया था, मुझे यह काम करके दिखाना है। मैं आगरा रेल मंडल की पहली महिला गार्ड बनी। रेलवे में चयन के बाद चंदौसी में ट्रेनिंग पर गईं तो साथ के कर्मचारियों ने कहा कि लड़कियों के लिए यह जॉब ठीक नहीं है। ट्रेनिंग पूरी होने के बाद शुरुआत में कुछ असहज लगा, लेकिन अब आदत हो गई है। कई बार रात में ट्रेन आउटर पर खड़ी होती है तो अपने केबिन को लॉक कर लेती हूं।
मानसी वरिष्ठ मंडल कार्मिक अधिकारी हैं। उनकी एक बहन आईएएस और दूसरी प्रोफेसर हैं। उनसे प्रेरित होकर ही मानसी ने ठान लिया था कि कुछ करके दिखाना है। दिल्ली आईटीआई से बीटेक करने के बाद 2011 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण करके रेलवे में वरिष्ठ मंडल कार्मिक अधिकारी बनीं। पहली पोस्टिंग झांसी और दूसरी आगरा में हुई। यहां कर्मचारियों की भर्ती, वेतन निर्धारण, पदोन्नित, मृतक आश्रितों की नियुक्तियां, पेंशन जैसे काम हैं। काम नहीं होता तो लोग झल्लाते हैं, ऐसे में धैर्य से उनकी बात सुनती हूं।
माधवश्री बस परिचालक हैं। शादी के बाद उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई। पति प्राइवेट नौकरी करते हैं। दो बच्चे होने के बाद उन्हें अच्छी शिक्षा देने के लिए खुद काम करने की ठानी। मैं इंटर तक पढ़ी थी। मैने 2015 में परिचालक भर्ती की परीक्षा दी और पास होकर परिचालक बन गई। इस समय आईएसबीटी में तैनात हूं। ससुर ने कहा कि कहीं महिलाएं भी कंडक्टरी करती हैं। ससुर को मनाया कि घर को अच्छे से चलाने के लिए नौकरी करना जरूरी है। बस में कभी कोई कमेंट करता है, तो भी परवाह नहीं करती।
भानुप्रिया ऑपरेटिंग विभाग में तैनात हैं। पिता की मौत के बाद परिवार की जिम्मेदारी उनके ऊपर आ गई थी। पिता रेलवे में थे। इंटर करने के बाद विभागीय परीक्षा दी तो पहले प्रयास में सफल रही। ट्रेनिंग के बाद आगरा कैंट में ऑपरेटिंग विभाग में तैनाती मिल गई। पिता के रेलवे में होने के कारण लोगों ने बेटी की तरह ही सहयोग किया। मुश्किलें तो सभी के सामने आती हैं, लेकिन ऑपरेटिंग में जॉब बहुत चैलेंजिंग है। शुरुआत में लोगों से संवाद करने में झिझक महसूस होती थी, लेकिन अब यह जॉब का हिस्सा है।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.