कल्पना को बचपन से ही गरीबी और अभाव का सामना करना पड़ा। छोटी-छोटी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती थीं। उन्हें अपनी हर इच्छा को मारना पड़ता था। दलित समाज से होने के कारण उन्हें और उनके परिवार को समाज की उपेक्षा भी झेलनी पड़ी। ढंग से होश संभाला भी नहीं था कि बाल-विवाह की कुप्रथा का शिकार होना पड़ा। कल्पना सरोज का घर बदला, लेकिन हालात नहीं। ससुराल वालों से कोई सहारा मिलने के बजाय यहां भी उन्हें तमाम तरह के शारीरिक, मानसिक अत्याचार सहने पड़े। बचपन से ही तकलीफें झेल रहीं कल्पना की हिम्मत एक समय जवाब दे गई और उन्होंने खुदकुशी का फैसला कर लिया। उन्होंने जान देने के लिए जहर पी लिया, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपनी मेहनत और लगन के दम पर कल्पना आज 700 करोड़ की कंपनी की मालकिन हैं ।
नई दिल्ली। कुछ लोगों की जिंदगी किसी फिल्म की पटकथा से कम नहीं होती है। उनकी जिंदगी में इतने उतार-चढ़ाव होते हैं कि उनके बारे में सुनकर एकबारगी यकीन करना मुश्किल होता है। कुछ ऐसी ही कहानी है महाराष्ट्र के अकोला जिले के छोटे से गांव रोपरखेड़ा के गरीब दलित परिवार में जन्मीं कल्पना सरोज की। कल्पना को बचपन से ही गरीबी और अभाव का सामना करना पड़ा। छोटी-छोटी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती थीं। उन्हें अपनी हर इच्छा को मारना पड़ता था। दलित समाज से होने के कारण उन्हें और उनके परिवार को समाज की उपेक्षा भी झेलनी पड़ी। ढंग से होश संभाला भी नहीं था कि बाल-विवाह की कुप्रथा का शिकार होना पड़ा। कल्पना सरोज का घर बदला, लेकिन हालात नहीं। ससुराल वालों से कोई सहारा मिलने के बजाय यहां भी उन्हें तमाम तरह के शारीरिक, मानसिक अत्याचार सहने पड़े। अपना पेट पालने के लिए मजबूरी में महज 2 रुपये रोजाना की दर से मजदूरी करनी पड़ी। बचपन से ही तकलीफें झेल रहीं कल्पना की हिम्मत एक समय जवाब दे गई और उन्होंने खुदकुशी का फैसला कर लिया। उन्होंने जान देने के लिए जहर पी लिया, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपनी मेहनत और लगन के दम पर कल्पना आज 700 करोड़ की कंपनी की मालकिन हैं । कल्पना करोड़ों का टर्नओवर देने वाली कंपनी 'कमानी ट्यूब्स' की चेयरपर्सन और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित हैं। इसके अलावा कल्पना सरोज कमानी स्टील्स, केएस क्रिएशंस, कल्पना बिल्डर एंड डेवलपर्स, कल्पना एसोसिएट्स जैसी दर्जनों कंपनियों की मालकिन भी हैं ।
पिता थे हवलदार, पूरा परिवार था उन्हीं पर निर्भर, मजबूरी में बेचती थी उपले
कल्पना सरोज का जन्म साल 1961 में महाराष्ट्र के अकोला के छोटे से गांव रोपरखेड़ा के गरीब दलित परिवार में हुआ था। कल्पना के पिता पुलिस हवलदार थे और उनका वेतन महज 300 रुपये था। इसी आय में उन्हें कल्पना समेत उनके 2 भाई, 3 बहन, दादा-दादी और चाचा का खर्च भी उठाना पड़ता था। पूरा परिवार पुलिस क्वार्टर में रहता था। घर के हालात खराब थे और इसी के चलते कल्पना गोबर के उपले बनाकर बेचा करती थीं। कल्पना पास के ही सरकारी स्कूल में पढ़ने जाती थीं, वे पढ़ाई में होशियार थीं पर दलित होने के कारण यहां भी उन्हें शिक्षकों और सहपाठियों की उपेक्षा झेलनी पड़ती थी।
सातवीं में पिता ने छुड़ा दी पढ़ाई, 12 साल में कर दी शादी
कल्पना जिस समाज से हैं वहां लड़कियों को 'जहर की पुड़िया' की संज्ञा दी जाती थी, घरवाले बच्चियों को बोझ समझते हुए इनकी जल्द से जल्द शादी करना चाहते हैं। कल्पना जब 12 साल की थीं और कक्षा 7वीं में पढ़ती थीं तभी समाज के दबाव में आकर उनके पिता ने उनकी पढ़ाई छुड़वा दी और उनसे उम्र में 10 साल बड़े लड़के से शादी करा दी। शादी के बाद वो मुंबई की झोंपड़पट्टी में आ पहुंची, जहां यातनाएं पहले से उनका इंतजार कर रहीं थीं। उसकी पढ़ाई रुक चुकी थी। ससुराल में घरेलू कामकाज में जरा सी चूक पर कल्पना को रोज बुरी तरह मारा-पीटा जाता था। बहुत ही कम उम्र में ये सब सहते-सहते कल्पना की स्थिति काफी खराब हो चुकी थी। शादी के 6 महीने बाद उनके पिता जब उनसे मिलने मुंबई पहुंचे तो बेटी की हालत देख रो पड़े। वह उन्हें अपने साथ गांव वापस ले आए।
समाज ने परिवार का बंद कर दिया था हुक्का-पानी, जान देने के लिए पी लिया था कीटनाशक
कल्पना के ससुराल छोड़कर मायके आने की सजा उनके परिवार को भी झेलनी पड़ी। समाज ने पंचायत बुलाकर उनके परिवार का हुक्का-पानी बंद कर दिया। हुक्का-पानी के साथ कल्पना को जिंदगी के सभी रास्ते भी बंद नजर आने लगे। कल्पना के पास जीने का कोई मकसद नहीं बचा था। हारकर उन्होंने जान देने का फैसला कर लिया और एक दिन तीन बोतल कीटनाशक पीकर जान देने की कोशिश की लेकिन रिश्ते की एक महिला ने उन्हें बचा लिया। कल्पना बताती हैं कि जान देने की कोशिश उसकी जिंदगी में एक बड़ा मोड़ लेकर आई। 'मैंने सोचा कि मैं क्यों जान दे रही हूं, किसके लिए? क्यों न मैं अपने लिए जिऊं, कुछ बड़ा पाने की सोचूं, कम से कम कोशिश तो कर ही सकती हूं।'
दोबारा नए हौसले के साथ लौटी मुंबई और बदल दी अपनी तकदीर
खुदकुशी की नाकाम कोशिश के बाद कल्पना जब महज 16 साल की थीं तो दोबारा मुंबई लौटीं, लेकिन इस बार नए हौसले और उम्मीदों के साथ। कल्पना को हुनर के नाम पर कपड़े सिलने आते थे और उसी के बल पर उसने एक गारमेंट कंपनी में नौकरी कर ली। यहां एक दिन में 2 रुपए की मजदूरी मिलती थी। कल्पना ने निजी तौर पर ब्लाउज सिलने का काम शरू किया। एक ब्लाउज के 10 रुपए मिलते थे। इसी दौरान कल्पना की बीमार बहन की इलाज न मिलने के चलते मौत हो गई। इस घटना से कल्पना बुरी तरह टूट गई। उसने सोचा कि अगर रोज चार ब्लाउज सिले तो 40 रुपए मिलेंगे और
घर की मदद भी होगी। उसने ज्यादा मेहनत की, दिन में 16 घंटे काम करके पैसे जोड़े और घरवालों की मदद की। इसी दौरान कल्पना ने देखा कि सिलाई और बुटीक के काम में काफी स्कोप है और उन्होंने इसे एक बिजनेस के तौर पर समझने की कोशिश की। उन्होंने दलितों को मिलने वाला 50,000 का सरकारी लोन लेकर एक सिलाई मशीन और कुछ अन्य सामान खरीदा और एक बुटीक खोल दिया। दिन-रात की मेहनत से बुटीक शॉप चल निकली तो कल्पना अपने परिवार वालों को भी पैसे भेजने लगीं।
17 साल से बंद कंपनी की संभाली कमान और कर दिया कमाल
धीरे-धीरे पैसे जोड़कर कल्पना ने एक फर्नीचर स्टोर भी खोला, जिससे उन्हें काफी अच्छा रिस्पॉन्स मिला। इसी के साथ उसने ब्यूटी पार्लर भी खोला और साथ रहने वाली लड़कियों को काम सिखाया। कल्पना ने दोबारा शादी की, लेकिन पति का साथ लंबे समय तक नहीं मिल सका। दो बच्चों की जिम्मेदारी कल्पना पर छोड़ बीमारी से उनके पति की मौत हो गई। लेकिन तब तक कल्पना के संघर्ष और मेहनत को जानने वाले उसके मुरीद हो गए और मुंबई में उन्हें पहचान मिलने लगी। इसी जान-पहचान के बल पर कल्पना को पता चला कि 17 साल से बंद पड़ी 'कमानी ट्यूब्स' को सुप्रीम कोर्ट ने उसके कामगारों से शुरू करने को कहा है। कंपनी के कामगार कल्पना से मिले और कंपनी को फिर से शुरू करने में मदद की अपील की। ये कंपनी कई विवादों के चलते 1988 से बंद पड़ी थी। कल्पना ने वर्करों के साथ मिलकर मेहनत और हौसले के बल पर बंद पड़ी कंपनी में जान फूंक दी। कल्पना ने जब कंपनी संभाली तो कंपनी के वर्करों को कई साल से सैलरी नहीं मिली थी, कंपनी पर करोड़ों का सरकारी कर्ज था, कंपनी की जमीन पर किराएदार कब्जा करके बैठे थे, मशीनों के कलपुर्जे या तो जंग खा चुके थे या चोरी हो चुके थे, मालिकाना और लीगल विवाद थे। इन परेशानियों के बावजूद कल्पना ने हिम्मत नहीं हारी और दिन-रात मेहनत करके ये सभी विवाद सुलझाए और महाराष्ट्र के वाडा में नई जमीन पर फिर से सफलता की इबारत लिख डाली।
पद्मश्री और राजीव गांधी रत्न से हो चुकी हैं सम्मानित
कल्पना की मेहनत का कमाल है कि आज 'कमानी ट्यूब्स' करोड़ों का टर्नओवर दे रही है। कल्पना बताती हैं कि उन्हें ट्यूब बनाने के बारे में रत्तीभर की जानकारी नहीं थी और मैनेजमेंट उन्हें आता नहीं, लेकिन वर्करों के सहयोग और सीखने की ललक ने आज एक दिवालिया हो चुकी कंपनी को सफल बना दिया। समाजसेवा और उद्यमिता के लिए कल्पना को पद्मश्री और राजीव गांधी रत्न के अलावा देश-विदेश में दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.