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नक्सलियों के गढ़ में सेंध लगाने वाली डॉ. रानी बंग

Published - Thu 03, Oct 2019

डॉ. रानी बंग ने नक्सलियों के गढ़ में महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएं देकर नक्सलियों को चुनौती दी और महिलाओं के स्वास्थ्य को सुधारने की दिशा में काम किया।

rani bang

मुंबई। देश के पिछड़े इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति क्या है, ये तो आप जानते ही हैं। अगर इलाका नक्सल प्रभावित हो तो फिर तो वहां काम करना या सेवा देना किसी चुनौती से कम नहीं है। पुरुष तो फिर भी उपचार के लिए इधर-उधर चले जाते हैं, लेकिन ऐसे इलाकों की महिलाओं का क्या। उनकी स्थिति तो और भी ज्यादा दयनीय होती है। लेकिन महिला स्वास्थ्य के लिए नक्सली क्षेत्र में भी डटकर खड़ी रहने वाली डॉ. रानी बंग नक्सलवादी क्षेत्र ‘गढ़चिरौली’ में स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं देने के लिए जाने जाती हैं। वह नक्सली इलाका होने के बाद भी यहां बिना किसी डर के काम करती हैं। उनकी निडरता और महिलाओं के प्रति सराहनीय जज्बे के कारण ही महिलाएं और आम लोग स्वस्थ हैं।

1951 में  महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में रानी बंग का जन्म हुआ।  उनका परिवार भी चिकित्सीय सेवाओं और सार्वजनिक कार्यों के लिए जाना जाता था। शुरुआत से ही पढ़ाई में अव्वल रहीं रानी बंग ने नागपुर मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया। 1972 में एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने यही एमडी भी किया। 1976 में एमडी की डिग्री हासिल करने के साथ-साथ उन्होंने विश्वविद्यालय में पहला स्थान भी प्राप्त किया। इसी बीच उनकी मुलाकात डॉ. अभय से हुई और दोनों ने शादी कर ली। 1977 में वो पढ़ाई के लिए पति के साथ विदेश चली गईं। जब वह पढ़ाई पूरी कर भारत लौंटी, तो उन्होंने निर्णय लिया कि वह भारत के ग्रामीण इलाकों में जाकर लोगों की मदद करेंगी। रानी जानती थीं कि ग्रामीण अचल में लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं है और लोग झोलाछाप से इलाज लेने को मजबूर हैं।

यहां आकर उन्होंने अपनी जन्मभूमि महाराष्ट्र को इस कार्य के लिए चुना। यहां भी उन्होंने नक्सल प्रभावित इलाके में जाकर काम करना शुरू किया, क्योंकि यहां महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति बेहद खराब थी। वहां महिलाओं को गर्भावस्था के समय बेहतर सुविधाओं का न मिलना, यौन संक्रमित रोग, गर्भपात की समस्याएं, शिशु मृत्यु दर और बांझपन जैसी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। उन्होंने गढ़चिरौली को अपना ठिकाना बनाया और दोनों पति-पत्नी यहां प्रैक्टिस करने लगे। गांव में जब उन्होंने लोगों से जाना तो वो हैरान रह गईं कि यहां आज से पहले कोई महिला डॉक्टर आई ही नहीं थी। शुरुआत में रानी का विरोध भी हुआ, जानलेवा हमला भी किया गया। भगाने का प्रयास भी हुआ, लेकिन रानी ने हार नहीं मानी। उन्होंने यहां की स्वास्थ्य समस्याओं पर एक रिसर्च किया, जिसमें सामने आया कि यहां शिशु मृत्युदर बेहद ज्यादा है। इसका बड़ा कारण अस्पताल में महिलाओं को उचित स्वास्थ्य सेवाओं का न मिलना है। उन्होंने ठान लिया कि वे इन समस्याओं का समाधान करेंगी। रानी ने यहां की महिलाओं को शिक्षित करने का काम शुरू किया, जिससे वे अपने स्वास्थ्य का ध्यान खुद रख सकें। पति की मदद से उन्होंने  गृह आधारित नवजात देखभाल (एचबीएनसी) मॉडल तैयार किया। इसके बाद वह घर-घर जाकर नवजात बच्चों की देखभाल करती थीं, ताकि जिले में और किसी की मौत न हो। इसका असर ये हुआ कि गांव वालों ने भी रानी का साथ देना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे क्षेत्र में शिशु मृत्युदर में कमी आने लगी और उनका ये मॉडल सफल हो गया। रानी के मॉर्डल को भारत की बारहवीं पंचवर्षीय योजना में भी शामिल किया गया। 1992 में रानी बंग को विश्व स्वास्थ्य सभा में शामिल होने का मौका मिला। दिलचस्प बात यह थी कि वहां डॉ रानी बंग ही एक मात्र गैर सरकारी कर्मचारी थीं।1993 में रानी ने मां दंतेश्वरी दवाखाना खोलकर अपनी एक नई शुरुआत की। बाद में जब ग्रामीणों का समर्थन प्राप्त हुआ, तो क्लीनिक ने अस्पताल का रूप ले लिया। आज इस अस्पताल में कई स्पेशलिस्ट डॉक्टर मौजूद हैं। यह अस्पताल रानी की संस्था ‘सोसाइटी फॉर एजुकेशन एक्शन एंड रिसर्च इन कम्युनिटी हेल्थ’ के अंतर्गत आता है। अपनी तीस साल की कड़ी मेहनत की बदौलत रानी ने गढ़चिरौली में बदलाव कर दिया है। उनकी मेहनत के चलते यहां की महिलाओं की सेहत को अच्छी हुई है। यहां नशा, कुपोषण आदि को भी रानी ने दूर कर दिया है।