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महिलाओं के सशक्तिकरण की एक सम्पूर्ण वेबसाइट

महिलाओं को एकजुट करके किया जीवन में परिवर्तन

Published - Sun 01, Nov 2020

देश के प्रतिष्ठित पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित हो चुकीं फूलबासन बाई यादव को आज हर कोई जानता है लेकिन एक वक्त ऐसा भी था जब उन्हें कई दिनों तक भूखे रहना पड़ता था। एक की कपड़े में महीनों गुजारने पड़ते थे लेकिन उन्होंने नियति से हार नहीं मानी और अपनी किस्मत बदलते का फैसला का लिया, जो आज सभी के लिए एक प्रेरणा है।

phoolbasan yadav

नई दिल्ली। फूलबासन बाई बचपन में अपने मां-बाप के साथ चाय के ठेले पर कप धोने का काम करती थीं। गरीबी इतनी थी कि जब घर में भोजन करने का समय आता तो माता-पिता कहते की आज एक ही समय का भोजन मिलेगा। कई बार तो हफ्तों खाना नहीं मिलता था। गरीबी के चलते कभी-कभी तो महीनों नमक नसीब नहीं होता था और एक ही कपड़े में ही महीने निकल जाते। 12 वर्ष की उम्र में
फूलबासन का विवाह हो गया। इतनी कम उम्र में शादी मानो एक बच्ची पर पूरे जिम्मेदारियों का बोझ आ गया हो। यहां भी घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, ऊपर से कुछ ही सालों में उनके चार बच्चे हो गए। अपने बच्चों को दो वक्त का भोजन जुटाने के लिए वह दर-दर अनाज मांगतीं। कई बार बच्चों को भूखे पेट देख वह खूब रोतीं।  इन परिस्थितियों से उबरने के लिए एक दिन फूलबासन ने प्रण लिया कि अब वह गरीबी, कुपोषण और बाल-विवाह जैसी बुराइयों से लड़ेंगी। बतौर फूलबासन मेरा बचपन गरीबी में बीता, विवाह के बाद भी मैं आर्थिक समस्याओं से जूझ रही थी। अंततः मैंने इसे बदलने के बारे में सोचा। मुझे खुशी है कि मैं इसमें सफल हुई और अन्य महिलाओं की भी मदद कर सकी।

महिलाएं एकजुट हुईं तो सुलझीं समस्याएं

मैं छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव की रहने वाली हूं। मेरा बचपन गरीबी से संघर्ष करते हुए बीता। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण मेरी पढ़ाई छूट गई और कम उम्र में ही मेरा विवाह कर दिया गया। मेरे पति के पास न तो जमीन थी, न रोजगार। ऐसे में ससुराल में भी आर्थिक आमदनी शून्य के बराबर थी। दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल था। कई बार भूखे रह जाना पड़ता था। कुछ ही वर्षों में मैं चार बच्चों की मां बन गई। लोग हमारी गरीबी का मजाक उड़ाते थे। ऐसे समय में मुझे स्वयं सहायता समूह के बारे में पता चला। मैंने दस महिलाओं के साथ एक स्वयं सहायता समूह बनाकर दो मुट्ठी चावल और हर सप्ताह दो रुपये जमा करने की योजना बनाई, लेकिन मेरे पति ने इस पर सहमति नहीं दी। यही नहीं, सामाजिक विरोध भी शुरू हो गया। पर मैंने ठान लिया कि अपनी दशा बदलनी है। महिलाओं की मदद से हमने जल्द ही आम और नींबू के अचार तैयार किए और उन्हें राज्य के करीब तीन सौ से अधिक स्कूलों में बेचा। धीरे- धीरे हमने अगरबत्ती, डिटर्जेंट पाउडर, मोमबत्ती आदि भी बनाना शुरू किया। हमने लगभग दो लाख महिलाओं को स्वावलंबन से जोड़ा है। 

सामाजिक कार्य

समूह की महिलाओं को तीन से पांच हजार रुपये तक प्रतिमाह की आय होने लगी। इस राशि से आपस में ही कर्जा लेने की वजह से हमें सूदखोरों के चंगुल से छुटकारा मिला। बचत राशि से समूह ने सामाजिक सरोकार के भी कई कार्य शुरू किए, जिसमें अनाथ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, बेसहारा बच्चियों की शादी, गरीब परिवार के बच्चों का इलाज आदि शामिल है।  

आत्मनिर्भरता की राह

पढ़ाई, भलाई और सफाई की सोच के साथ हमारे समूह में तय किया गया कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए अभियान चलाया जाए। इसके पीछे सोच यह थी कि महिलाओं में आत्मविश्वास आएगा और वे सामाजिक कुरीतियों से लड़ना सीखेंगी।

पद्मश्री सम्मान

शराबबंदी, बाल विवाह जैसी कई सामाजिक समस्याओं के खिलाफ हमारे स्वयं सहायता समूह ने जोरदार आंदोलन किया। इसका असर यह हुआ कि अब दर्जनों गांवों में शराब की ब्रिकी बंद हो गई है। इसके अलावा दर्जनों गांव ऐसे हैं, जहां हमारे आंदोलन के कारण अब बाल विवाह नहीं होते। इन्हीं सामाजिक कार्यों के चलते वर्ष 2012 में भारत सरकार ने मुझे पद्मश्री से भी सम्मानित किया।