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कभी मेड तो कभी दिहाड़ी मजदूरी करने वाली सरिता हौसले के दम पर बनीं बीएड टीचर

Published - Fri 25, Oct 2019

महिलाओं को हर कदम पर दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है। एक अपना अस्तित्व बनाए रखने की और दूसरे इस पुरुष सत्तात्मक समाज में खुद को साबित करने की। अगर महिला निम्न तबके की हो, फिर तो उसे जीवन की बेहद चुनौतिपूर्ण कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। तमाम परेशानियों से जूझती महिला जब अपने दम पर फर्श से अर्श पर पहुंचती है, तो उसे तो सलाम करना बनता ही है। एक वक्त था जब रांची की सरिता तिर्की दिहाड़ी पर मजदूरी किया करती थीं पर पढ़ने की ख्वाहिश ने उन्हें पढ़ने की राह में डाल दिया। खूब मेहनत की और आज वह शहर के महिला कॉलेज में बीएड की टीचर हैं....

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नई दिल्ली। रांची के सिमरिया गांव की सरिता तिर्की के माता-पिता दिहाड़ी मजदूर थे। उनके पास थोड़ी-बहुत जमीन थी, जिस पर बमुश्किल से वे परिवार के खाने भर अनाज उगाया करते थे। अपने पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर हैं सरिता। बचपन से ही दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देख उन्हें भी पढ़ने-लिखने की ख्वाहिश होती थी। इसी वजह से जब वह पांच वर्ष की थीं, तब माता-पिता ने एक स्थानीय मिशनरी स्कूल में उनका एडमिशन करवा दिया। वहां कोई फीस नहीं लगती थी। सरिता शुरू से ही पढ़ने में तेज थी। इस वजह से केजी-1 से लेकर क्लास-6 तक लगातार फर्स्ट डिविजन में पसस होती थी। मिडिल स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने ठान लिया कि उन्हें खूब पढ़ना है। समाज में अपनी एक अलग पहचान बनानी है। पढ़ाई के प्रति उनके रूझान को देखते हुए ही उनके पिता ने आगे खूंटी केंद्रीय विद्यालय में क्लास-7 में उनका एडमिशन करवा दिया, जहां लड़कियों के पढ़ने, रहने और खाने आदि की सारी सुविधाएं सरकार द्वारा वहन की जाती हैं। सरिता ने वहां दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की। इन चार सालों के बीच उनके परिवार से कोई भी कभी मिलने नहीं आया। कारण पूछने पर सरिता कहती हैं, उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वे खूंटी से बेड़ो तक आने-जाने का खर्च वहन कर सकें। इस वजह से कई बार कुछ टीचर्स और लड़कियां ताने भी मारती थीं।

कंडक्टर ने बस से दिया था धक्का
प्रथम श्रेणी दसवीं पास करने के बाद जब आगे पढ़ने की समस्या आई, तो हॉस्टल की एक वॉर्डन सिस्टर मेली कंडेमना ने 500 रुपये देकर सरिता की आर्थिक मदद की। तब उन्होंने खूंटी कॉलेज में एडमिशन लिया। सरिता के घर बेड़ो से खूंटी की दूरी करीब 42 किलोमीटर है।लोहदरगा से खूंटी के बीच रोज एक बस चलती है, जो कि बेड़ो से होकर गुजरती है। वह रोज उससे ही कॉलेज जाने लगीं, लेकिन पैसे ना होने के कारण टिकट नहीं खरीदती थीं। कुछ दिनों बाद कंडक्टर को यह पता चला गया। एक दिन उसने धक्का देकर उन्हें बस से उतार दिया। तब सरिता ने कुछ समय तक पढ़ाई छोड़ कर खेतों में धान रोपने का काम किया, ताकि बस की टिकट का खर्च निकाल सकें। कुछ महीनों बाद जब दीदी की शादी हो गई, तब उनके जीजाजी ने उन्हें एक साइकिल खरीद दी। इससे उनके लिए कॉलेज जाना-आना आसान हो गया। कॉलेज में हमेशा उनकी उपस्थिति सौ फीसदी रही।

किताबें नहीं थीं फिर भी किया टॉप
सरिता कहती हैं कि रोज कॉलेज जाना जरूरी था। बुखार हो या घर में कोई भी बड़ा काम, सभी कुछ छोड़कर कॉलेज जाती थी। दरअसल, सरिता के पास किताबें नहीं थीं कि वह छुट्टी होने पर भी घर में पढ़ सके। क्लास-नोट्स पाने की ललक से रोज कॉलेज जाना सरिता के लिए जरूरी था। उन्हीं नोट्स को पढ़कर सरिता ने भूगोल से ना केवल फर्स्ट डिवीजन में ग्रेजुएशन पास किया, बल्कि कॉलेज टॉपर भी रहीं।

आगे पढ़ने के लिए करनी पड़ी मजदूरी
खूंटी में ग्रेजुएशन तो कर लिया मगर उसके बाद वहां आगे उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं थी, इसलिए सरिता रांची में अपने एक भाई के पास आ गईं। वह जिस घर में गार्ड का काम करते थे, वहीं के गैरेज में रहते थे। सरिता भी वहीं रहने लगी। आगे एमए में एडमिशन के लिए पैसों की जरूरत थी, तो कुछ दिन तक उन्होंने रेजा (दिहाड़ी मजदूर) का काम किया। सरिता बताती हैं, उस वक्त मेरे पास खाने के लिए भी पैसे नहीं थे। दो दिन तक पानी पीकर काम चलाया। भाई को संकोचवश बता नहीं पाई। तीसरे दिन साथी महिलाओं को पता चला, तो उन्होंने अपना लंच शेयर किया। चौथे दिन जब मजदूरी मिली, तब पड़ोस की एक लड़की ने अपना परीक्षा फॉर्म भरने के लिए मुझसे हेल्प मांगी। मैंने सारे पैसे उसे ही दे दिए। उस वक्त खुद से ज्यादा उसके लिए मुझे वे पैसे उपयोगी लगे, फिर अगले दिन मजदूरी मिलने पर भोजन का सामान खरीदा और कई दिनों बाद भरपेट भोजन किया।कुछ दिनों तक मजदूरी करके पैसे बचाने के बाद सरिता ने रांची यूनिवर्सिटी में एमए का फॉर्म भरा। एडमिशन टेस्ट लिस्ट में वह टॉप-10 में आई। सरिता ने एनसीसी भी ज्वॉइन कर लिया लेकिन भूगोल विषय होने की वजह से प्रैक्टिकल क्लास करना जरूरी था। तब सरिता मजदूरी छोड़कर एक घर में मेड का काम करने लगी। वह रोज सुबह अरगोड़ा चौक से अशोक नगर तक काम करने जातीं फिर वहां से मोहराबादी स्थित एनसीसी ग्राउंड में प्रैक्टिस करने जातीं, फिर वहां से रांची वुमेंस कॉलेज में पढ़ने जातीं और शाम में वापस काम करते हुए शाम करीब आठ बजे तक घर लौटती। सरिता कहती हैं कि यह सारी दूरी मुझे पैदल ही तय करनी पड़ती थी क्योंकि रोज के लिए ऑटो या बस का किराया उसके पास नहीं था।

मकान मालकिन ने की मदद
सरिता ने एमए भी फर्स्ट डिवीजन से पास कर लिया। फिर भी उनके आगे और पढ़ने की ललक कम नहीं हुई। उसके बाद वह बीएड करना चाहती थीं। सरिता कहती हैं, एक दिन मेरी मकान मालकिन, जिन्हें मैं प्यार से ‘दादीमां’ कहती थीं, वह मेरे कमरे पर आईं। उस समय ठंड का मौसम था और मैं जमीन पर सिर्फ एक पतला-सा दुपट्टा ओढ़े सो रही थी क्योंकि मेरे पास कंबल या रजाई नहीं था। दादीमां मेरी आर्थिक स्थिति देख कर रो पड़ीं। बाद में वह जब तक जीवित रहीं, हमेशा भोजन, कपड़े आदि से वह मेरी यथासंभव मदद करती रहीं। इस बार दादी मां ने बीएड में एडमिशन लेने के लिए सरिता को 10 हजार दिए। कुछ दिन तक फिर से उन्होंने मजदूरी की और पैसे जमा करके बीएड में दाखिला लिया, जिसमें वह फोर्थ टॉपर रहीं। आगे अब एमएड में एडमिशन लेने की टेंशन आ खड़ी हुई। इसके लिए करीब एक लाख चाहिए थे। किसी ने सरिता को एजुकेशन लोन के बारे में बताया लेकिन जब वह बैंक गईं, तो पता चला बीएड-एमएड की पढ़ाई के लिए यह लोन नहीं मिलता। सरिता ने बैंक स्टाफ से काफी मिन्नतें कीं और उन्हें अपने रिजल्ट और आर्थिक स्थिति के बारे में जब बताया, तब उन्होंने सरिता के पिछले शैक्षिक रिकॉर्ड को देखते हुए उन्हें एक लाख का लोन उपलब्ध करवा दिया। सरिता ने जमशेदपुर वुमेंस कॉलेज में दाखिला लिया। वहां हॉस्टल वॉर्डन गुड़िया दीदी ने हॉस्टल मेस की फीस माफ करवाने में सरिता की मदद की। कुछ दोस्तों ने किताबें आदि उधार देकर पढ़ने में मदद की। इस तरह सरिता ने एमएड भी फर्स्ट डिवीजन विथ डिस्टिंकशन पास कर लिया।

बेटी की शादी की बजाय, पढ़ाई पर करें खर्च
आज सरिता रांची वुमेंस कॉलेज में बीएड टीचर हैं। अपनी छोटी बहन और सबसे छोटे भाई को भी सरिता ने अपने पास ही रख कर पढ़ाया। बहन भी रांची के ही एक प्राइवेट बीएड कॉलेज में पढ़ा रही हैं, जबकि भाई सेंट जेवियर्स कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रहा है। सरिता बताती हैं, उन दोनों के अलावा एक अन्य लड़की अनिता भी हम लोगों के साथ रहती है। वह भी मेरी की तरह बेहद गरीब परिवार से है लेकिन उसकी आंखों में भी मुझे पढ़ने का वही जुनून नजर आया, जो कभी मेरी आंखों में पला करता था। इसी वजह से सरिता उसे अपने साथ ले आईं और अब उसे भी पढ़ा रही हैं। सरिता नहीं चाहती हैं कि जिस कठिन संघर्ष से उन्हें गुज़रना पड़ा है, वैसा किसी और को भी झेलना पड़े। सरिता कहती हैं, हर माता-पिता को अपनी लड़कियों की शादी पर पैसा खर्च करने के बजाय उनकी पढ़ाई पर खर्च करना चाहिए। इससे उन्हें दोगुना रिटर्न मिलेगा। एक तो बेटी शिक्षित और आत्मनिर्भर बनेगी और दूसरे पढ़-लिख कर वह अपने लिए बेहतर जीवनसाथी ढूंढ़ सकेगी।