टोक्यो ओलंपिक का कोटा हासिल करने वालीं पहलवान सीमा बिसला हरियाणा के एक छोटे से गांव की रहने वाली हैं। बचपन में जब उन्होंने कुश्ती सीखने के लिए अखाड़े में कदम रखा तो यह बात गांव वालों को नागवार गुजरी। वे सीमा के पिता से बोले- छोरियों का काम न है कुश्ती लड़ना, बेटी को घर का काम-धंधा में लगा। लेकिन कबड्डी खिलाड़ी रह चुके सीमा के पिता ने किसी की एक न सुनी और बेटी को कुश्ती खेलना जारी रखने को कहा। बड़ी बहन ने भी सीमा का पूरा साथ दिया और उन्हें रोहतक में अपने घर पर रखकर प्रैक्टिस व पढ़ाई कराई। सीमा ने भी पिता और बहन को निराश नहीं किया। राष्ट्रीय स्तर के कई खिताब अपने नाम करने के बाद सीमा ने अब ओलंपिक का कोटा हासिल कर आलोचकों का मुंह बंद कर दिया है।
नई दिल्ली। टोक्यो ओलंपिक के लिए देश को कुश्ती में आठवां कोटा दिलाने वाली सीमा बिसला को इस मुकाम तक पहुंचने के लिए बचपन में कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। सबसे बड़ी बाधा थी गांववालों की सोच। वे बचपन में सीमा को ताने मारते और हंसते। उनके पिता से भी कई बार कहा गया कि बेटी को कुश्ती न सिखाएं। लेकिन पिता ने हमेशा बेटी का हौसला बढ़ाया।
सीमा रोहतक जिले के गुढान गांव की रहने वाली हैं। उनके पिता आजाद सिंह महज तीन एकड़ जमीन के किसान हैं। सीमा चार बहनों और एक भाई में सबसे छोटी हैं। उन्होंने सात साल की उम्र में ही कुश्ती सीखना शुरू कर दिया था। सीमा के पिता आजाद सिंह अपने क्षेत्र के नामी कबड्डी खिलाड़ी रह चुके हैं, लेकिन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं खेल सके। पारिवारिक परेशानियों के कारण उन्हें खेल बीच में ही छोड़ना पड़ा। पिता के नक्शे कदम चलते हुए सीमा ने भी खेल में कॅरियर बनाने का फैसला किया, लेकिन उन्होंने कबड्डी की जगह कुश्ती को चुना। इसकी एक मुख्य वजह थी उनके बड़े जीजा। सीमा की सबसे बड़ी बहन सुशीला के पति नफे सिंह कुश्ती खेलते थे। जीजा से ही प्रेरणा लेकर सीमा ने कुश्ती में कॅरियर बनाने का फैसला किया। लेकिन परेशानी यह थी कि गांव के आसपास कोई ऐसा संस्थान नहीं था, जहां लड़कियों को कुश्ती की बेहतर तालीम दी जा सके। पिता आजाद सिंह के पास इतने पैसे भी नहीं थे कि बेटी का शहर के किसी अच्छे स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में दाखिला करा सकें। यह बात जब बड़ी बहन सुशीला को पता चली तो उन्होंने सीमा को रोहतक शहर स्थित अपने घर में रखने और कुश्ती सिखाने के साथ पढ़ाई का पूरा जिम्मा उठाने का फैसला किया। सीमा ने वैसे तो कुश्ती करना 1999 में ही शुरू कर दिया था, लेकिन 2004 में ईश्वर दहिया अखाड़े में नियमित रूप से प्रैक्टिस करने लगीं। इसके बाद सीमा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
बहन ने अपने बच्चे की तरह रखा ख्याल
सीमा जब महज 9 साल की थीं, तभी बड़ी बहन सुशीला उन्हें अपने पास ले आईं और अखाड़े में दाखिला करा दिया। सुशीला बहन सीमा के खाने-पीने, प्रैक्टिस का पूरा ख्याल रखतीं। खेल के चक्कर में पढ़ाई प्रभावित न हो इसका भी सुशीला ने पूरा ध्यान रखा। सीमा कहती हैं कि बड़ी बहन ने उनका हमेशा अपने बच्चे की तरह ख्याल रखा। जीजा भी भाई की तरह हमेशा स्नेह देते हैं। गलती करने पर डांटते भी हैं। सीमा ने भी बहन के त्याग को बेकार नहीं जाने दिया। कुछ ही दिनों में वह अच्छी पहलवान बन गईं और कदम-दर-कदम सफलता की सीढ़ियां चढ़ती गईं। जूनियर में नेशनल-इंटरनेशनल मेडल हासिल कर अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। सीमा का हमेशा से सपना था कि वह ओलंपिक में खेलें और देश के लिए पदक जीतें।
रेलवे की नौकरी छोड़ बनीं कोच
सीमा फिलहाल 26 साल की हैं। उन्होंने 2018 में देश के लिए कॉमनवेल्थ चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीता था। इससे पहले भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई मेडल अपने नाम कर चुकी हैं। वर्ल्ड चैंपियनशिप में ब्रांज मेडल हासिल किया था। खेल कोटे से सीमा को रेलवे में क्लर्क की नौकरी मिली थी। कुछ दिन नौकरी करने के बाद सीमा ने हरियाणा सरकार की खेल नीति से प्रभावित होकर सरकार की ओर से दिए गए सीनियर कोच के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और रेलवे की नौकरी छोड़ दी। सीमा का कहना है कि कोच की नौकरी को इसलिए चुना ताकि भविष्य में प्रदेश के युवाओं को खेल के प्रति प्रोत्साहित कर सकूं। सीमा फिलहाल पानीपत में सीनियर कोच के पद पर अपनी सेवाएं दे रही हैं।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.