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कभी गलियों में घूमकर बेचती थीं कोयला, आज हैं लक्जरी कारों और 10 बेडरूम के बंगले की मालकिन

Published - Tue 30, Mar 2021

कहते हैं दिन फिरते वक्त नहीं लगता...। ऐसा ही हुआ सविताबेन देवजी परमार के साथ। कभी वह कोयला फैक्ट्रियों से जला हुआ कोयला बीनकर उसे ठेले पर लादकर घर-घर जाकर बेचती थीं और आज कईं लग्जरी कारों और 10 बेडरूम वाले बंगले की वह मालकिन हैं। अनपढ़ महिला होने के बावजूद सविताबेन ने अपने दृढ़ निश्चय, मजबूत हौसले और मेहनत से जो मुकाम हासिल किया, वह सभी के लिए प्रेरणादायक है...

savitaben koyle wali

गुजरात में कोयलावाली के नाम से मशहूर सविताबेन देवजी परमार अहमदाबाद की रहने वाली हैं। उनके घर की माली हालत बहुत खराब थी। उनके पति देवजीभाई अहमदाबाद म्युनिसिपल टांसपोर्ट सर्विस में कंडक्टर की नौकरी किया करते थे।  60 रुपये मासिक तनख्वाह पाने वाले देवजीभाई के कंधों पर अपने माता-पिता, पत्नी और छह बच्चों से भरपूर गृहस्थी चलाने का भार था। माता-पिता के खर्च, कर्ज चुकाने और किराए की रकम देने के बाद उनके पास केवल 20 रुपये ही बचते थे, जिससे उन्हें बच्चों और घर का खर्च उठाना पड़ता था। हालांकि सविताबेन बेहद मेहनती और समझदार महिला थीं, लेकिन बढ़ती महंगाई में बच्चों की परवरिश कर पाना मुश्किल होता जा रहा था। वे खुद केवल तीसरी कक्षा तक पढ़ीं थी, इसीलिए उन्हें कोई काम मिल पाना मुश्किल था। लेकिन घर की आर्थिक हालत को देखते हुए सविताबेन ने एक दिन स्वयं निश्चय किया कि वह भी काम करेंगी।

कोयला बेचने का काम करने की ठानी
नौकरी के लिए सविताबेन ने बड़े हाथ पैर मारे, लेकिन कहीं बात नहीं बनी। इसके पीछे सबसे बड़ी मु​श्किल यही थी कि उन्हें पढ़ना-लिखना बिलकुल नहीं आता था। इस कारण कोई भी उन्हें काम पर नहीं रख रहा था। पर सविताबेन कहां हिम्मत हारने वाली थीं।  उन्होंने तब खुद का कोई काम शुरू करने का सोचा। उनके माता-पिता कोयला बेचने का व्यापार किया करते थे, जिसे देखते हुए सविताबेन ने भी कोयला बेचने का काम शुरू करने का निश्चय ले लिया। पहले सोचा कि माता-पिता के साथ  रहकर काम करें, लेकिन उनकी मां ने यह कहकर मना कर दिया कि इससे उनकी छोटी बहनों के रिश्ते आने में समस्या हो सकती है।

फैक्ट्रियों का जला कोयला बीन ठेले पर बेचने लगीं
अब  सविताबेन के पास एक ही रास्ता था। खुद कोयला खरीदकर बाजार में बेचें। लेकिन ऐसी गरीबी में वह माल खरीदने के पैसे कहां से लातीं? फिर उन्होंने पैसे जुटाने के लिए पहले कोयला फैक्ट्रियों में से जला हुआ कोयला बीनना शुरू किया। अहमदाबाद में कई कपड़ा मिले थीं, जिनमें से अधजला कोयला निकलता था। यह कोयला वे बाजार में बेच देते थे। सविताबेन ने इन्हीं मिलों से कोयला खरीदकर बेचना शुरू कर दिया। उन दिनों घरों में भी कोयले पर ही खाना पकता था, इसीलिए सविताबेन को ग्राहक ढूंढने में अधिक परेशानी नहीं हुई। वे पहले अहमदाबाद की गलियों में ठेले पर कोयला लादकर बेचने लगीं, फिर धीरे-धीरे बड़े बाजारों में। दिन में कोयला बेचने के बाद वे शाम को अपने परिवार के साथ चरखा चलाकर सूत का काम करती थीं। इस सूत के बदले उन्हें थोड़े पैसे और थोड़ा राशन मिल जाता था।

कमाई होने लगी तो उससे कोयले की दुकान खोली
कमाई होने लगी तो उन्होंने अब अपने व्यवसाय को बढ़ाने का सोचा और एक छोटी-सी कोयले की दुकान खोल ली। दुकान खोलने के बाद कुछ ही महीनों बाद उन्हें छोटे कारखानों से ऑर्डर मिलने लगे। जिन दिनों सविताबेन कोयला बेचती थीं, उन दिनों पक्का कोयला बेचने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था। व्यापारी यह लाइसेंस लेकर अपने सब-एजेंट्स को कोयला बेचने का काम देते थे। उन्हीं में से एक व्यापारी थे श्री जैन, जिन्हें सविताबेन काका कहती थीं। काका को रेल से आने वाला कोयला बेचना होता था। उन्होंने सविताबेन की लगन को देखकर कोयला बेचने का काम उन्हें सौंप दिया, जबकि अन्य व्यापारियों ने उन्हें दलित कहकर काम देने से मना कर दिया था। अपनी जाति के कारण हुए इस भेदभाव से सविताबेन निराश नहीं हुई। धीरे-धीरे रेलवे का अधिकतर कोयला सविताबेन कमीशन पर बेचने लगीं। सविताबेन अपने परिवार के साथ एक चाल के छोटे से कमरे में रहती थीं।

कोयले ने किस्मत चमकाई, लेकिन परेशानी भी खूब झेली
एक दिन एक सिरेमिक वाले ने उन्हें एक बड़ा आर्डर दिया, बस इस प्रकार से सविताबेन कारखाने के दौरे करने लगीं। उन्हें माल पहुंचाने और पेमेंट लेने के लिए अलग-अलग कारखानों में जाना होता था। उस चाल के पास ही एक होटल था– नीलम होटल। सविताबेन व्यापारियों को वहीं मिलने बुलाने लगीं। उनके तीनों बेटे भी इसी काम में उनका हाथ बंटाने लगे।
1977 की बात है। जिस नीलम होटल में वे व्यापारियों से सौदा करती थीं, उसी होटल में एक डॉक्टर अक्सर आते-जाते थे। वे सविताबेन की लगन और समझदारी से बहुत प्रभावित थे। वे अहमदाबाद की मेघानी नगर में रहते थे और उनका मूल निवास वड़ोदरा के पास था। उन्होंने सविताबेन से कहा कि वे पढ़ाई करके घर लौटने वाले हैं और मेघानी नगर वाला उनका मकान खाली रहेगा, तो क्यों न सविताबेन अपने परिवार के साथ वहीं रह लें। परिवार बड़ा था और मकान छोटा, इसीलिए सविताबेन को यह ऑफर अच्छा लगा। उस वक्त उस घर की कीमत करीब पचास हजार रुपये थी। सविताबेन ने अपनी जमा पूंजी के 15 हजार रुपये उन्हें दिए और डॉक्टर साहब ने बाकी पैसे बाद में लेने की सहूलियत उन्हें दे दी। लेकिन दलित होना सविताबेन को यहां भी भारी पड़ा। मेघानी नगर की सोसाइटी ने एक दलित परिवार को प्रॉपर्टी ट्रांसफर करने से इनकार कर दिया। इधर, डॉक्टर साहब भी जिद्दी थे, इस वजह से उन्होंने पॉवर ऑफ अटॉर्नी सविताबेन के नाम कर दी। लेकिन सोसाइटी वालों ने सविताबेन के परिवार का जीना मुश्किल कर दिया। इस बीच, तत्कालीन गुजरात सरकार ने एक नया फैसला लिया। फैसला था शिक्षण संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण बढ़ाने का। फैसले के विरोध में सारे शहरों में आंदोलन हो रहे थे। इसके चलते सविताबेन को वह मकान आखिर छोड़ना ही पड़ा। एक और परिचित ने उन्हें अपने मकान में शरण दी, लेकिन दलित विरोधियों ने उन्हें वहां भी नहीं बख्शा। आखिर सविताबेन सपरिवार वापस उसी दस बाई दस की चाल में लौट गईं। कुछ समय बाद उन्होंने शाही बाग में एक दूसरा घर लिया। सविताबेन ने कभी भी इस तरह से भेदभाव बरते जाने की शिकायत नहीं की, न ही उन्होंने कभी दलितों को मिलने वाले आरक्षण का फायदा उठाया। उनके तीनों बेटे ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, लेकिन तीनों बेटियों को उन्होंने ग्रेजुएशन कराया। सविताबेन ने न तो कारोबार में, न बच्चों की पढ़ाई में, कभी आरक्षण का लाभ लिया। उन्हें गर्व है कि वे और उनका परिवार जो भी है, अपनी मेहनत और लगन से हैं।

अपनी कंपनी खोल ली और विदेशों में सिरेमिक्स उत्पादों का निर्यात करने लगीं
सविताबेन के कोयला कारोबार के ग्राहकों में सिरेमिक इंडस्ट्री के लोग भी थे। उससे प्रेरित होकर साल 1988 में सविताबेन ने कप और प्लेट बनाने की अपनी एक छोटी-सी सिरेमिक की भट्टी भी शुरू की। कारखाने के उत्पाद अहमदाबाद के लोकल मार्केट में ही खप जाते थे और प्रतिमाह पांच लाख तक की बिक्री हो जाती थी। उन्होंने ग्राहकों को कम दाम में ही अच्छी क्वालिटी की सिरेमिक उपलब्ध कराई, फिर तो उनका व्यापार बढ़ता ही गया और वे कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ती गईं। फिर 1989 में सविता बेन ने प्रीमियर सिरेमिक्स बनाना भी शुरू कर दिया तथा साल 1991 में स्टर्लिंग सिरेमिक्स लिमिटेड नामक एक कंपनी का शुभारंभ किया और विदेशों में भी सिरेमिक्स उत्पादों का निर्यात करने लगीं। सविताबेन अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं- हम गरीब व दलित थे, इस वजह से व्यापारी हमारे साथ व्यापार नहीं करना चाहते थे। कोयला व्यापारी कहते थे कि-‘यह तो एक दलित महिला है, कल को हमारा माल लेकर भाग गई तो हम क्या करेंगे?’

कईं लग्जरी कारों और 10 बेडरूम के बंगले की मालकिन हैं सविताबेन
सविताबेन इन दिनों केवल ऑफिस में बैठकर काम होते देखती हैं। आज उनकी कंपनी जॉनसन टाइल्स जैसी कंपनी को भी सिरेमिक टाइल्स बेच रही है। इसके साथ-साथ उनका अपना ब्रांड 'स्टर्लिंग' भी पूरे देश में मशहूर है। कारोबार अब उनके बेटे संभालते हैं। अपने बलबूते पर करोड़पति बनीं सविताबेन का यह पूरा सफर आसान नहीं था, कई मुश्किलें झेलकर और अपनी गरीबी से लड़कर, उन्होंने अपना एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया। आज उन्हें गुजरात में हर व्यक्ति जानता है और वे वहां सविताबेन कोलसावाला या कोयलावाली के नाम से मशहूर हैं। सविताबेन का नाम भारत की सर्वाधिक सफल महिला उद्योगपति की सूची में दर्ज है। उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। आज सविताबेन कई लग्जरी कारें, जैसे - ऑडी, पजेरो, बीएमडब्ल्यू व मर्सीडीज इत्यादि की मालकिन हैं। अहमदाबाद शहर के पॉश एरिया में उनके 10 बेडरूम के विशाल बंगले की शान भी देखते ही बनती है। सच यहीं है कि दिन-रात एक कर के जो लोग अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए मेहनत करते हैं, उनकह किस्मत कभी ना कभी जरूर बदलती है।

story by sunita kapoor