कोरोना काल में पिता की नौकरी छूटी तो बेटी परिवार परिवार को पालने लगी। बनजीत कौर के जज्बे को देख दूसरे लोग भी उनसे प्रेरणा ले रहे हैं...
आमिर खान की फिल्म "दंगल" का एक डायलॉग बहुत मशहूर हुआ था... 'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के'...। इस डायलॉग पर ही यह पूरी फिल्म बेस्ड थी। जी हां, बेटियां-बेटों से बिलकुल भी कम नहीं होती हैं और जरूरत पड़ने पर वह बेटों से भी बढ़कर साबित होती हैं। ऐसा ही कुछ कर दिखाया जम्मू-कश्मीर के उधमपुर की बनजीत कौर ने। 21 साल की बनजीत ने कोरोना काल में बेरोजगार हुए अपने पिता की जिम्मेदारी बांटने में अहम भूमिका निभाई। उसने ऑटो रिक्शा चालक बनकर घर को संभालने में मदद की। उसके जज्बे को देख दूसरे लोग भी उनसे प्रेरणा ले रहे हैं।
सुबह कॉलेज जाती हैं
हमने और आप सबने भी पुरुषों को ही ऑटो चालक के तौर पर देखा है। लेकिन इस मिथक को तोड़ते हुए बनजीत ने ऑटो रिक्शा चलाने का फैसला किया। पढ़ाई के अलावा घर की जिम्मेदारी उठाना उनका मुख्य मकसद था। वह कॉलेज की पढ़ाई कर रही हैं। चूंकि पिता की नौकरी चली गई ऐसे में वो घर का खर्च उठाने के लिए पार्ट टाइम ऑटो रिक्शा चलाने लगीं।
बनजीत को ड्राइविंग नहीं आती थी...
बनजीत के पिता एक स्कूल में बस चलाते थे, लेकिन लॉकडाउन होने से उनकी जॉब चली गई। ऐसे में घर का खर्च चलाना मुश्किल हो गया। वह अपने पिता को ऐसी हालत में नहीं देख सकती थी। इसी के चलते उसने अपने पिता सरदार गोरख सिंह से ऑटो रिक्शा चलाने की बात कही। बनजीत को ड्राइविंग नहीं आती थी, तो पहले उन्होंने पिता से ड्राइविंग की ट्रेनिंग ली।
घरवालों को हुआ गर्व
आज बनजीत पर उसके घर वालों समेत सभी स्थानीय लोगों को गर्व है। मालूम हो कि इससे पहले जम्मू कश्मीर में की पूजा देवी ने भी मिसाल कायम की थी। वह पहली महिला पैसेंजर बस ड्राइवर बनी थीं। बताया जाता है कि लड़कियों को इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए स्थानीय एआरटीओ की तरफ से भी अभियान चलाया जा रहा है जिसमें लड़कियों को ड्राइविंग की ट्रेनिंग दी जा रही है।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.