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हापुड़ की बेटियों ने जीता ऑस्कर अवार्ड

Published - Mon 25, Feb 2019

शर्म से स्वाभिमान तक

सुनीता कपूर।

कहने को हम 21वीं सदी में जी रहे हैं लेकिन आज भी पीरियड या मासिक धर्म के बारे में बात करने में कतराते हैं। शहर में रहने वाली लड़‌कियां हों या गांव की गोरियां,  माहवारी आज भी इनके के लिए रहस्य और कौतूहल का विषय है। पीरियड, मासिक धर्म या माहवारी इन शब्दों को सुनते ही किशोरियां ही नहीं, उम्रदराज महिलाएं भी फुसफुसाते हुए हंसती हैं और शरमाकर अपना चेहरा छिपा लेती हैं।

शारीरिक प्रक्रिया की इस नैसर्गिक अवस्‍था को महिलाएं घृणित और पाप समझती हैं और इस विषय में किसी अपने से भी बात क‌रना उनके लिए मानों कोई गुनाह हो। महिलाएं कहती हैं कि पीरियड कोई बीमारी या महामारी होगी।

इसी मिथ को तोड़ती फिल्म है पीरियड. एंड ऑफ सेंटेंस। इस शॉर्ट फिल्म ने विश्व के सबसे बड़े सिनेमा के पुरस्कार ऑस्कर अवार्ड के शॉर्ट सब्जेक्ट डॉक्यूमेंट्री वर्ग में ऑस्कर जीता है। यह डॉक्यूमेंट्री बात करती है उन औरतों की जिनकी पिछली पीढ़ियों ने कभी सेनेटरी पैड नहीं देखे थे और न ही उसके बारे में वे कुछ जातनी थीं। इससे उस गांव की लड़कियों को कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें पेश आती थीं। कभी उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ता, तो कभी पढ़ाई ही छोड़ देनी पड़ती थी। इसके बाद उनके गांव में एक सेनेटरी नैपकिन बनाने वाली मशीन लगा दी गई। इस चीज ने उनके जीवन में क्रांतिकारी बदलाव ला दिया। अब उन्होंने इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। वो भी अपने हाथों से बनाकर। वो इन पैड्स का सिर्फ खुद ही इस्तेमाल नहीं करती, इसे बेचती भी हैं, ताकि दूसरी महिलाओं तक भी यह सुविधा पहुंचे और उनकी आय का साधन भी हो।

फिल्म की शुरुआत में पीरियड. एंड ऑफ सेंटेंस की मुख्य नायिका स्नेहा एक बेहद अहम सवाल पूछती है। वह कहती है, पीरियड के दौरान उन्हें मंदिर में जाना मना है। मां दुर्गा को हम मंदिर में बिठाते हैं तो लड़कियों को मंदिर में प्रवेश करने से क्यों मना किया जाता है। फिल्म 2017 में काठीखेड़ा में शूट की गई। फिल्म में वहीं की स्‍थानीय लड़िकयों और महिलाओं ने काम किया है। 25 मिनट की इस फिल्म में कुछ ऐसे दृश्य हैं जो दिल को छू जाते हैं और कई सवाल भी छोड़ जाते हैं।

अमर उजाला की अपराजिता मुहिम के तहत हमारी टीम उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिला मुख्यालय के हापुड़ से लगभग सात किमी दूर एक छोटे से गांव काठीखेड़ा पहुंची। इस गांव में हमने वहां इस फिल्म में काम करने वाली रियल नायिकाओं से बातचीत की। पुलिस में भर्ती होने का सपना देखने वाली 23 साल की सपना कहती हैं, 'जब मैंने यहां काम करना शुरू किया, तो मैंने पिता को बताया कि यह एक डाइपर फैक्ट्री है। मुझे शर्म महसूस होती थी कि लोग सोचेंगे कि लड़की माहवारी जैसे विषय पर बात क्यों कर रही है? लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि अगर मुझे झिझक महसूस होगी तो मैं अपना काम कैसे करूंगी।' इसके बाद साहस जुटाते हुए स्नेहा ने अपनी महिला रिश्तेदारों और दोस्तों को इस बारे में बताना शुरू किया और उन्हें सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करने के लिए जागरूक किया। स्नेहा अपनी कमाई से प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग की फीस भरती हैं। वह कहती हैं, 'हालांकि मेरे पिता काफी सहयोग करते हैं लेकिन यह देखकर अच्छा लगता है कि मैं खुद से कुछ कर पा रही हूं।'

सबला उद्योग समिति की सुमन इसका क्रेडिट अमेरिका के लॉस एंजिलिस शहर के एक स्कूल की 10 बच्चियों और उनकी इंग्लिश टीचर को देती हैं। इन लोगों को जब पता चला कि हापुड़ में कई लड़कियां पीरियड्स की वजह से स्कूल छोड़ देती हैं तो उन्होंने पैड मेकिंग मशीन के लिए फंड डोनेट किया। सुमन कहती हैं, 'यह सिर्फ पैसे कमाई की बात नहीं है बल्कि हम जागरूकता फैलाना चाहती हैं और बताना चाहते हैं कि लड़कियां किसी पर निर्भर नहीं है, खासकर पतियों पर।'