बंगलुरू की सबीना सोलोमन अनाथ बच्चों की देखभाल करती हैं और तीस सालों से ऐसे बच्चों की सेवा कर रही हैं।
नई दिल्ली। अनाथ बच्चों को अक्सर दुत्कार और घृणा ही मिलती है, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो इनके बारे में सोचते और काम करते हैं। इन्हीं में से एक हैं बंगलुरू की सबीना सोलोमन। तीस सालों से अनाथ बच्चों के लिए काम कर रही सबीना पीछे मुड़कर देखना नहीं चाहतीं। अनाथ बच्चों की सेवा करना ही उनके जीवन का लक्षय है।
ऐसे हुई शुरुआत
सबीना 1991 में काम के सिलसिले में बंगलुरू के शिवाजीनगर के एक अनाथ आश्रम में पहुंची। यहां उनका काम अनाथ बच्चों के लिए भोजन पकाना था। भोजन पकाने के साथ-साथ उन्हें अनाथ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी दी गई। 1998 में पति की मौत हो गई। सबीना हारी नहीं और खुद का जीवन अनाथ बच्चों को समर्पित करने की ठानी और उनकी सेवा करने लगीं। उस समय अनाथालय में पांच बच्चे थे। लेकिन आज करीब सौ बच्चे उनके अनाथ आश्रम में रहते हैं।
सबीना के बच्चे भी करते हैं मदद
सबीना के तीन बच्चे हैं, जिनमें उनका बेटा 28 साल का स्टालिन है और अपनी मां और बहन के साथ अनाथों की सेवा करता है। लॉकडाउन लगने के बाद उन्होंने तमाम तरह की परेशानियों को झेला, लेकिन अपने काम से पीछे नहीं हटे। सबीना की बेटी एंजेल भी मां के इस काम में उनकी मदद करती हैं। एक स्थानीय शैक्षणिक संस्थान में अपनी फ्रंट-ऑफिस की नौकरी के लिए जाने से पहले वह भोजन पकाती है। लॉकडाउन से पहले, एंजेल और सबीना पूरे दिन के लिए भोजन पकाते थे और बच्चों को स्कूल भेजा जाता था।
चुनौतियों से हार नहीं मानी
कोरोना आने के कारण सबीना के अनाथालय को मदद मिलना लगभग बंद हो गया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। लॉकडाउन था, तो राशन का स्टोर खाली हो चुका था। पुलिस से मदद मांगी, लेकिन मदद नहीं मिली। सबीना ने अपनी मां से मिले आभूषण बेचकर गुजारा किया।
अनाथों को दिलवाती हैं शिक्षा
सबीना अपने अनाथालय में रहने वाले बच्चों को शिक्षा भी दिलवा रही हैं। बच्चों को शहर के स्कूलों में भेजा जाता है। लॉकडाउन के कारण फिलहाल स्कूल बंद हैं, तो बच्चे अनाथालय में रहकर ही पढ़ाई करते हैं। बच्चे कन्नड़ और अंग्रेजी माध्यम स्कूलों दोनों में जा रहे थे, और प्रत्येक बच्चे की फीस स्कूल द्वारा सीधे प्रायोजक द्वारा भुगतान की जाती है।
कोशिश है कि आत्मनिर्भर बने बच्चे
सबीना का कहना है कि उनकी कोशिश है कि उनके यहां के बच्चे पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बनें और अपने पैरों पर खड़े हों।
वह बताती हैं कि इस साल, सभी छात्र जिन्होंने परीक्षा लिखी है, उन्होंने उच्च प्रथम श्रेणी अंक प्राप्त किए हैं।” लॉकडाउन के दौरान, बच्चे सप्ताह में तीन बार ऑनलाइन आवेदन कर रहे हैं, इसके लिए हम मेक ए डिफरेंस फाउंडेशन के आभारी हैं, जिसने उन्हें अपनी कक्षाओं के लिए लैपटॉप दिए हैं।
परेशानियों में हार नहीं मानी
सबीना का कहना है कि कोरोना आने के कारण उनकी कमाई, दान आदि सब बंद हो गया है। ऐसे में बच्चों के लिए अच्छा करना मुश्किल हो चला है, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी है। उनको पूरा विश्वास है कि चीजे बेहतर होंगी। उनका कहना है कि उनका यह परिवार है, जिसके लिए वो अंतिम सांस तक काम करती रहेंगी।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.