मणिपुर के पांगी बाजार ऑटो स्टैंड पर पैंट और बूशर्ट पहने एक अधेड़ उम्र की महिला जब अपने ऑटो रिक्शा में सवारियां ढोती है तो उसके भीतर का आत्मविश्वास देखते ही बनता है।
मेरी मेहनत का लोग मजाक उड़ाते थे, लेकिन मेरे पास बहुत कम विकल्प थे। तब मेरा एक ही लक्ष्य था- अपने बेटों को अच्छी शिक्षा देना। अब वे मुझे सम्मान देते हैं। यहां तक कि ट्रैफिक पुलिस भी मुझे ‘सलाम’ करती है। अब मुझे किसी से कोई नाराजगी नहीं है। मणिपुर में महिलाएं केवल मजदूरी, गो-पालन या फिर बुनाई का काम करती हैं। ऐसे में जब एक महिला पुरुषों के करियर क्षेत्र में अपने को स्थपित करने का प्रयास करती है, तो दिक्कत आती ही है।
मणिपुर के पांगी बाजार ऑटो स्टैंड पर पैंट और बूशर्ट पहने एक अधेड़ उम्र की महिला जब अपने ऑटो रिक्शा में सवारियां ढोती है तो उसके भीतर का आत्मविश्वास देखते ही बनता है। लाईबी ओइनाम की कहानी बहुत ही भावुक करने वाली है। इतनी मुसीबतें आने पर भी उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी और आज उनकी इसी हिम्मत से उनका परिवार अच्छी स्थिति में है और उनके दोनों बच्चे अच्छी शिक्षा भी पा रहे हैं। लाईबी देशभर की महिलाओं के लिए एक प्रेरणा हैं, और उनके नक्शेकदम पर चलते हुए, मणिपुर में अब तीन और महिला ऑटो चालक हैं।
ओइनाम की कहानी, उनकी जुबानी
मैं मणिपुर की रहने वाली हूं। मेरे पति को मधुमेह की बीमारी और उनका शराब पीने की लत थी। शादी के कुछ वर्षों बाद मेरे दो बच्चे हुए। इससे पहले कि बच्चे बड़े होकर अपने पैरों पर खड़े होते, मेरे पति पूरी तरह से बीमारी की गिरफ्त में आ गए। वह घर पर ही रहने लगे। घर-परिवार की जिम्मेदारी संभालने के लिए मैंने एक ईंट-भट्ठे पर काम करना शुरू कर दिया। चूंकि पहले उस तरह के काम करने की आदत नहीं थी, ऐसे में कुछ ही दिन में मैं वहां पर परेशान हो गई। इसके बाद मैंने ईंट-भट्ठे पर काम करने का विचार छोड़ दिया और बाहर निकल कुछ करने के बारे में सोचने लगी।
सेकंड हैंड ऑटो-रिक्शा खरीदा
मैंने रिक्शा चलवाने के बारे में विचार किया। चूंकि पहले मुझे चलाना नहीं आता था, तो मैंने चिट फंड के माध्यम से पैसा इकट्ठा किया और एक सेकंड हैंड ऑटो-रिक्शा खरीदकर उसे किराये पर देने का फैसला किया। लेकिन, दो वर्ष में कई गैर-जिम्मेदार ड्राइवरों से मेरा सामना हुआ, परिणामस्वरूप रिक्शे से कमाई होने की जगह उसमें निवेश ज्यादा ही बढ़ गया। यह मेरे और मेरे परिवार के लिए बेहद संकट का समय था, मैं खाने तक की व्यवस्था किसी तरह से कर पाती थी। रुपये न होने के कारण मेरे बेटों को स्कूल भी छोड़ना पड़ा।
मेरे साथ भी हुआ दुर्व्यवहार
मैं हताशा में होने के साथ लाचार भी थी, तब मेरे दिमाग में यह विचार आया कि क्यों न एक-दो सप्ताह में ऑटो रिक्शा चलाना सीख लिया जाए और उसके बाद अपने बूते पर इसे चलाया जाए। जब मैंने ऑटो चलाना शुरू किया तो लोगों ने मुझे ताने मारे, मुझे अपमानित किया और मुझे चिढ़ाया। मेरे ऑटो को ट्रैफिक पुलिस रोक देती थी और मुझे सजा भी देती थी। एक बार मैंने कुछ यात्रियों को बिठाने के चक्कर में सिग्नल तोड़ दिया, तभी सामने से पुलिसकर्मी आए और मेरे ऑटो पर डंडे से मारने लगे, जिसके चलते उसका कांच टूट गया। जब मैंने विरोध किया तो उन्होंने मेरे साथ भी दुर्व्यवहार किया। पर मैं अपने काम के लिए अडिग थी, अगले दिन फिर मैं रिक्शा लेकर सड़क पर निकली। मुझे पड़ते तानों का असर मेरे बच्चों पर भी पड़ा, उनकी मां एक ऑटो चालक है यह सुनकर वे अपमानित महसूस करने लगे, यहां तक कि वे मुझसे भी नफरत करने लगे। घर और बाहर दोनों तरफ से दबाव आ रहा था, पर मेरी मजबूरी ने मुझे हटने के बजाय और मजबूती दी।
मेरे पर बनी फिल्म ने बढ़ाई हिम्मत
वर्ष 2011 में मैं अपने रिक्शे से सवारी लेकर जा रही थी, तभी स्थानीय फिल्म निर्माता मीना लोंग्जाम मुझसे मिलीं। उन्होंने मुझसे कुछ सवाल पूछे, धीरे-धीरे मैंने उनको अपनी सारी कहानी बता दी। कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे कैमरे के आगे बोलने और रिक्शा चलाने को कहा। मुझे तब पता नही था कि क्या हो रहा है, पर बाद उन्होनें बताया कि यह एक फिल्म है, जिसे 2015 में नॉन फिक्शन कैटेगरी में राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। इसके बाद लोगों का नजरिया बदल गया। लोग मुझे प्रोत्साहित करने लगे। मेरी कमाई बढ़ी, तो मैंने अपने लिए एक नया ऑटो खरीदा और घर बनाने के लिए कर्ज भी लिया। मेरा बड़ा बेटा अब स्नातक की पढ़ाई कर रहा है और अधिकारी बनना चाहता है।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.