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लाखों का पैकेज छोड़ दो बहनों ने की जैविक खेती, आज लोगों को दे रहीं रोजगार

Published - Sat 12, Oct 2019

दो बहनें, कुछ अलग करने की सोच, जज्बा ऐसा कि जो ठान लिया, उसे पूरा करना ही है। कुछ ऐसा ही सोचते सोचते पहाड़ों की इन बेटियों में से एक ने गुरुग्राम में एक मल्टीनेशनल कंपनी में लाखों का पैकेज छोड़ दिया और गांव आ गई। उनकी एक अन्य बहन भी दिल्ली में पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनी बहन का हाथ बंटाने पहुंच गई। दोनों ने मिलकर ऐसा काम शुरू किया कि पहाड़ों से लोगों का पलायन ही बंद नहीं हुआ, बल्कि बाहर से भी पर्यटक उनके गांव पहुंचने लगे हैं। संघर्ष और जीत की यह कहानी है नैनीताल की दो सगी बहनों कनिका और कुशिका की।

नई दिल्ली। कुशिका ने कुछ साल तक गुरुग्राम की मल्टी नेशनल कंपनी में लाखों के सैलरी पैकेज वाला जॉब किया। इस दौरान कनिका ने भी दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा प्राप्त कर खुद को इंटरनेशनल एनजीओ सेक्टर से जोड़ लिया, लेकिन दोनों बहनें अपने-अपने पेशे से भीतर ही भीतर घुट रहीं थीं। घर-गांव की खूबसूरत वादियों, माता-पिता से दूर रहकर बस एक ढर्रे में दिन काटते जाना उन्हें तनिक भी रास नहीं आ रहा था। कुशिका बताती हैं - हमारे पास सब कुछ था लेकिन जिंदगी में सुकून नहीं था। शहरों में लोग अपनी आरामदायक जिंदगी के साथ कुछ वक्त प्रकृति के साथ बिताना चाहते हैं। दिमाग में आया कि क्यों न वे अपने गांव पहुंचकर पहाड़ पर ऐसा ही कुछ इंतजाम करें। दोनों की जिंदगी बाकी पढ़े-लिखे युवाओं की तरह मुश्किल न रही हो, लेकिन पहाड़ की इन बेटियों ने अपनी राह बनाने की खुद ठानी और कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ती रहीं। जब कुशिका को मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने सम्मानित किया, तो वह खुशी से झूम उठी। दोनों बहनों की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा उनके कुमाऊं अंचल के नैनीताल और रानीखेत से हुई। बाद में कुशिका ने एमबीए किया।

स्थानीय रोजगार रोक सकता है पलायन
कुशिका और कनिका का मानना है कि उत्तराखंड के पहाड़ों से पलायन थामना है तो यहां के लोगों को स्थानीय स्तर पर ही रोजी-रोजगार मुहैया कराना होगा। पर्यटन यहां एक बड़ी संभावना के रूप में मौजूद है। सरकार और शासन इस ओर दिलचस्पी लें, गंभीरता से मुखातिब हो जाएं, यहां के लोगों के साथ हाथ बंटाएं तो कोई भी व्यक्ति इतने खूबसूरत पहाड़ छोड़कर कहीं न जाए। उत्तराखंड का पर्यटन उद्योग सिर्फ कृषकों ही नहीं, अन्य वर्गों के लोगों के लिए भी मुफीद है।

... और इस तरह शुरू हुआ कामयाबी का सफर
दोनों बहनों के अनुसार पहाड़ पर छुट्टियां मनाने जो लोग पहुंचेंगे, मेरे संसाधन उनको तसल्ली तो देंगे ही, कारोबार भी चल निकलेगा। तब हम बहनों ने अपनी नौकरी छोड़कर जन्मभूमि पर ही कुछ करना तय कर लिया। इरादा ऑर्गेनिक फार्मिंग का रहा। हम दोनों सब छोड़छाड़ कर अपने गांव मुक्तेश्वर लौट गईं। दिमाग जैविक फॉर्मिंग पर जा टिका। पारंपरिक खेती नहीं, जैविक उत्पादों की ओर। इसके लिए सबसे पहले प्रशिक्षण जरूरी था। दोनों बहने दक्षिण भारत के कई राज्यों में जाकर जैविक कृषि करना सीख आईं। वह 2014 का साल था। शुरुआत में उन्हें कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। उनके प्रयोग पर यकीन करना मुश्किल था। दोनों ने 25 एकड़ जमीन पर खेती शुरू कर दी। इसके साथ एक नया प्रयोग किया ‘दयो – द ओर्गानिक विलेज रिसॉर्ट’। ताकि अपने रिसॉर्ट तक पहुंचने वाले अपने अतिथि खुद हों। 'दयो' यानी स्वर्ग। पांच कमरों (पंच तात्विक नामकरण - उर्वी, इरा, विहा,अर्क, व्योमन) वाला रिसॉर्ट शुरू करने मेंदो साल लगे।

फार्म से पसंद की सब्जी तोड़ो, बनाओ और खाओ

दोनो बहने गंव के बच्चों को शिक्षा के प्रति भी जागरूक कर रही हैं। सैलानी आने लगे। इसके साथ ही दोनों बहनों ने स्थानीय लोगों को हॉस्पिटैलिटी का प्रशिक्षण दिया। अब तो खेती से लेकर रसोई तक का सारा काम वही लोग संभाल रहे हैं। खेत फसलें दे रहे हैं। खुद अपनी पसंद की सब्जियां तोड़ो, बनाओ, खाओ। प्रयोग लुभावना था। खास कर विदेशी पर्यटकों को खूब भाया। रिसॉर्ट में शेफ की भी व्यवस्था है, जिनसे मनपसंद खाना तैयार करवाया जा सकता है। इस समय उनके रिसॉर्ट में लगभग दो दर्जन कर्मचारी हैं। साथ ही दोनों बहनें अपने आसपास के लोगों को भी जैविक खेती के लिए जागरूक करने लगीं। साथ ही अपने कृषि उत्पाद बेचने की सप्लाई चेन भी बनाने लगीं। अब उनके कृषि उत्पाद मंडियों तक पहुंचने लगे हैं।