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आज के युग की यशोदा मां हैं डॉ. बलमीत कौर

Published - Wed 18, Sep 2019

पच्चीस साल पहले बहराइच की बलमीत कौर के हाथ में अच्छी खासी डिग्री थी, 1992 में परास्नातक, इसके बाद पीएचडी और लखनऊ के एनसी चतुर्वेदी ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट से मूक बधिर बच्चों को शिक्षित करने का प्रशिक्षण लिया। पीएचडी होल्डर डॉ. बलमीत कौर के पास नौकरियों की भी कमी नहीं थी, लेकिन इन सबको एक तरफ रखकर बलमीत कौर ने ऐसे बच्चों के लिए काम करना पसंद किया, जो शारीरिक रूप से अक्षम थे। उन्हें ये ख्याल अपने दिव्यांग भाई गुरविंदर को देखकर आया था। इसी सोच के साथ बलमीत ने अपना सफर शुरू किया।

balmeet kour

बाराबंकी। शारीरिक और मानसिक  रूप से अशक्त बच्चों के प्रति संवेदना तो सब रखते हैं, लेकिन उनके प्रति कोई कुछ करने के बारे में सोचता नहीं हैं। लेकिन बहराइच की डॉ. बलमीत कौर ने ऐसे बच्चों के बारे में सोचा भी और किया भी। उन्होंने अपना पूरा जीवन ही इन बच्चों के नाम कर दिया और आज वो कलयुगी यशोदा मां के रूप में दिव्यांग बच्चों का सहारा बन रही हैं।

आज से पच्चीस साल पहले बहराइच की बलमीत कौर के हाथ में अच्छी खासी डिग्री थी, 1992 में परास्नातक, इसके बाद पीएचडी और लखनऊ के एनसी चतुर्वेदी ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट से मूक बधिर बच्चों को शिक्षित करने का प्रशिक्षण लिया। पीएचडी होल्डर डॉ. बलमीत कौर के पास नौकरियों की भी कमी नहीं थी, लेकिन इन सबको एक तरफ रखकर बलमीत कौर ने ऐसे बच्चों के लिए काम करना पंसद किया, जो शारीरिक रूप से अक्षम थे। उन्हें ये ख्याल अपने दिव्यांग भाई गुरविंदर को देखकर आया था। इसी सोच के साथ बलमीत ने अपना सफर शुरू किया। उनके इस काम में आर्थिक परेशानियों से लेकर तमाम तरह की दिक्कतों ने बलमीत के हौंसलों को तोड़ना चाहा, लेकिन बलमीत ने हार नहीं मानी। पिता द्वारा बनाये गए बाबा सुंदर शिक्षा समीति के जरिये बलमीत ने मूक-बधिर बच्चों और मानसिक, शारीरिक रूप से अशक्त बच्चों को शिक्षित करने का अभियान शुरू किया। उन बच्चों के रहने-खाने-पीने से लेकर तमाम तरह के जिम्मेदारी बलमीत ने खुद उठानी शुरू की ताकि बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो सके। ऐसे परिवार जो गरीब और असहाय थे, उनके बच्चों का जिम्मा भी बलमीत ने अपने कंधों पर ले लिया। अब तक सैंकड़ों बच्चों को शिक्षित कर चुकी बलमीत ने अपना पूरा जीवन ही इन बच्चों के नाम कर दिया है। उनकी जिंदगी का एक ही मकसद है कि जो भी उनके पास आए, कुछ बनकर जाए, कुछ सीखकर जाए।

शुरुआत में उन्होंने पांच बच्चों को लेकर काम शुरू किया था, लेकिन अब तक वह सैकड़ों का जीवन सुधार चुकी हैं। बच्चों के लिए काम करने की उनकी ललक इतनी है कि उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का फैसला लिया और आज भी वह उस पर अड़िग हैं। अभी उन्होंने छह दिव्यांग बच्चों को गोद ले रखा है और उनको सक्षम बनाने में जुटी हुई हैं। बलमीत बच्चों को शिक्षित करने के साथ उन्हें हाथ का हुनर सिखाने जैसे कढ़ाई, बुनाई, मोमबती बनाना जैसे कार्यों का प्रशिक्षण भी दिलवाती हैं, जिससे कि बच्चे बड़े होकर अपना व्यवसाय भी कर सकें। बलमीत की दिव्यांग बच्चों की सेवा के प्रति इतनी लगन है कि उन्होंने अपना पूरा शरीर मेडिकल कॉलेज को दान करने का फैसला लिया है। उनका मानना है कि वह चाहती हैं कि उनके शरीर का एक-एक अंग दिव्यांग बच्चों के काम आ सके। अपने कार्यों के लिए वह प्रदेश सरकार, राज्यपाल और तमाम पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं। बलमीत का कहना है कि ये दिव्यांग बच्चे पढ़ लिखकर समाज के लिए मिसाल पेश कर सकते हैं कि दिव्यांगता कोई अभिशाप नही है।