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बीरुबाला राभा ने डायन कुप्रथा के खिलाफ संघर्ष में झेला बहिष्कार

Published - Thu 25, Feb 2021

डायन कुप्रथा के खिलाफ शुरू हुए अभियान के चलते पहले के मुकाबले अब ग्रामीणों में काफी जागरुकता आई है। इसके साथ ही कानून बनने से लोगों में महिला उत्पीड़न को लेकर डर भी पैदा हुआ है।

Birubala Rabha

असम में एक दशक पहले तक साल में 12 से 15 महिलाओं को सिर्फ इसलिए मार दिया जाता था, क्योंकि लोगों को लगता था वह डायन है। लेकिन हाल ही के वर्षों में इसमें भारी कमी आई है। इसका श्रेय जाता है बीरुबाला राभा को। राभा पिछले 15 सालों से अधिक समय से महिलाओं के लिए लड़ रही हैं। इस तरह के अत्याचार से बचने के बाद राभा ने ऐसी महिलाओं के लिए लड़ने का फैसला किया। उन्होंने दूर-दराज की यात्राएं की और सार्वजनिक बैठकें करके लोगों को जागरूक किया। उनके शानदार प्रयासों की वजह से भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है। 
बिरुबाला ने अपने जीवन भर कई तरह की बाधाओं का सामना किया है। वह जब 6 साल की थीं तभी उनके पिता की मौत हो गई थी। पिता की मौत के चलते उन्हें अपना स्कूल छोड़ना पड़ा और अपनी मां की मदद करने लगी। उनकी मां खेतों में जाकर मजदूरी किया करती थी। 15 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई और उनके तीन बच्चे हुए, उन्हीं की देखरेख में उनका जीवन बीतने लगा। आसपास के लोग अक्सर गांव में डायन होने और गांव से उसे निकालने के किस्से सुनाया करते थे। बीती सदी के नब्बे के दशक की बात है, उनके बड़े बेटे को टाइफाइड हो गया था। चूंकि गांव में चिकित्सा सुविधा आसानी से उपलब्ध नहीं थी। इसलिए वह उसे लेकर एक वैद्य के पास गई। वैद्य ने बताया कि उनके बेटे पर एक डायन का साया है और वह उसके बच्चे की मां बनने वाली है और जैसे ही उस बच्चे का जन्म होगा, उनका बेटा मर जाएगा। राभा बहुत परेशान हो गई। लेकिन कई महीने बीत जाने के बाद भी उनके बेटे को कुछ नहीं हुआ। तब उन्हें लगा कि लोग जादू-टोना के नाम पर आदिवासी महिलाओं को डायन बताकर प्रताड़ित किया जा रहा है और समाज को नष्ट किया जा रहा है। उन्होंने तभी से अंधविश्वास व डायन कुप्रथा के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया।

ग्रुप में काम करना शुरू किया

उनके गांव में एक महिला को लोगों ने डायन बताकर प्रताड़ित किया। इसका उन्होंने विरोध किया। तब उन्होंने अपने गांव की कुछ महिलाओं के साथ मिलकर काम करना शुरू किया। तब पता चला कि आस-पास के गांवों में भी कुछ महिलाओं को डायन बताकर प्रताड़ित किया गया है। उन्हें निर्वस्त्र कर पीटा गया। तब उन्होंने गांव में जाकर उन महिलाओं के बारे में पता लगाया। पता चला कि उन महिलाओं को गांव से बाहार निकाले जाने की तैयारी हो रही है। तब उन्होंने स्थानीय नेताओं से मुलाकात की और उन्हें अपने बेटे के बारे में बताया। उन्होंने उन लोगों को बताया कि दुनिया में डायन जैसा कुछ नहीं है बस महिलाओं को प्रताड़ित करने का एक माध्यम है। 

समाज से बहिष्कार 

इसके बाद कई गैर-सरकारी संगठनों के लोगों से भी उनकी मुलाकात हुई। उन्होंने भी बहुत सहायता की, इसके बाद डायन हत्या जैसे अंधविश्वास के खिलाफ उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की। लेकिन कई लोगों को यह पसंद नहीं आया और उन्होंने बीरुबाला को तीन साल के लिए समाज से बहिष्कृत कर दिया। 

कानून का सहारा

कुछ वर्ष बाद उन्होंने व्यापक स्तर पर असम के जनजातीय ग्रामीण क्षेत्रों में अंधविश्वास के खिलाफ अभियान शुरू किया। असम सरकार ने वर्ष 2015 में असम डायन प्रताड़ना (प्रतिबंध, रोकथाम और संरक्षण) कानून बनाया। इससे उत्पीड़न की घटनाओं में काफी कमी आई, लेकिन अभी मंजिल दूर है।   

अनेक जानें बचाईं

राभा ने लोगों को जागरूक करना शुरू किया। उन्होंने लोगों को बताया कि बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास जाओ, न कि नीम-हकीम के पास। जिन लोगों के मन में नफरत और हिंसा है, वही लोग ऐसे अंधविश्वास को मानते हैं। लोग अब उनकी बात सुनने और मानने लगे हैं। अंधविश्वास फैलाने वाले लोग अब बीरुबाला से डरते हैं, क्योंकि उनके बुलाने पर पुलिस पहुंच जाती है। अब तक उन्होंने चालीस से अधिक ग्रामीणों की जान बचाई है।