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भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले, जिन्हें लोग पत्थर मारते थे

Published - Sun 08, Mar 2020

महज नौ साल की उम्र में उनका विवाह हो गया था। विवाह के समय वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं। लेकिन पढ़ाई में उनका मन बहत लगता था। उनके पढ़ने और सीखने की लगन से प्रभावित होकर उनके पति ने उन्हें आगे पढ़ना और लिखना सिखाया।

savitriby phule

भारत में महिलाओं की गिनती हमेशा से ही दोयम दर्जे में होती रही है। वहीं अगर बात 18वीं सदी की करें तो उस समय के महिलाओं के संघर्ष को समझा जा सकता है। उस समय महिलाओं का स्कूल जाना भी पाप समझा जाता था। ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने जो कर दिखाया वह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है। वह जब स्कूल पढ़ने जाती थीं तो लोग उन पर पत्थर फेंकते थे। इस सब के बावजूद वह अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटकीं। 

सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले को भारत की पहली महिला शिक्षक के तौर पर जाना जाता है। उन्होंने अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर स्त्री अधिकारों एवं शिक्षा के लिए उल्लेखनीय कार्य किए। सावित्रीबाई मराठी कवित्री के साथ-साथ एक समाज सुधारक भी थी। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई ने 1884 में अपने पति के साथ मिलकर महिलाओं के लिए एक स्कूल खोला था। 
सावित्रीबाई ने अपना पूरा जीवन महिलाओं और समाज में समानता लाने के लिए लगा दिया। वह अपनी पूरी जिंदगी महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ती रही। आज उनकी पहचान भारतीय नारीवाद की जननी के रूप में है। 
नौ साल की उम्र में हो गया था विवाह 
सावित्रीबाई का जन्म 1831 में महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव नयागांव में हुआ था। जैसे-जैसे वह युवा हुई उनके सपने और भी बड़े होते गए। सिर्फ सपने ही बड़े नहीं थे उनके इरादे भी मजबूत थे। महज नौ साल की उम्र में उनका विवाह ज्योतिराव फुले से हो गया। शादी के बाद वह जल्द ही अपने पति के साथ पुणे आ गईं। विवाह के समय वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं। लेकिन पढ़ाई में उनका मन बहत लगता था। उनके पढ़ने और सीखने की लगन से प्रभावित होकर उनके पति ने उन्हें आगे पढ़ना और लिखना सिखाया। सावित्रीबाई ने अहमदनगर और पुणे में शिक्षक बनने का प्रशिक्षण लिया और एक योग्य शिक्षिका बनीं। 
लोग पत्थर मारते थे गंदगी फेकते थे
उनकी शिक्षिका बनने का सफर इतना भी आसान नहीं रहा। उस समय लड़कियों का स्कूल जाना किसी पाप से कम नहीं माना जाता था। जब वह स्कूल जाती थीं तो लोग उन्हें पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे। जिससे उनके कपड़े गंदे हो जाते थे। इससे निपटने के लिए वह एक साड़ी अलग से ले जती थीं और स्कूल पहुंच कर वह अपने कपड़े बदल लेती थीं। इतनी परेशानी के बावजूद उन्होंने अपना लक्ष्य नहीं छोड़ा और पढ़ाई जारी रखी। 
समाज में समानता ही था उनका लक्ष्य 
भारत में विधवाओं की दुर्दशा सावित्रीबाई को बहुत दु:ख पहुंचाती थी। इसलिए 1854 में उन्होंने विधवाओं के लिए एक आश्रय खोला। वर्षों के निरंतर सुधार के बाद 1864 में इसे एक बड़े आश्रय में बदलने में सफल रहीं। उनके इस आश्रय गृह में निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और उन बाल बहुओं को जगह मिलने लगी जिनको उनके परिवार वालों ने छोड़ दिया था। सावित्रीबाई उन सभी को पढ़ाती लिखाती थीं। उन्होंने इस संस्था में आश्रित एक विधवा के बेटे यशवंतराव को भी गोद लिया था। उस समय आम गांवों में कुए पर पानी लेने के लिए दलितों और नीच जाति के लोगों का जाना वर्जित था। यह बात उन्हें और उनके पति को बहुत परेशान करती थी। इसलिए उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर एक कुआं खोदा ताकि वह लोग भी आसानी से पानी ले सकें। उनके इस कदम का उस समय खूब विरोध भी हुआ। 
ब्रिटिश सरकार ने किया सम्मानित 
अपने पति की संस्था सत्यशोधक समाज के लिए भी वह लगातार काम कर रही थीं। इसके माध्यम से वह समाज में बराबरी लाना चाहती थीं। 1873 में, सावित्रीबाई ने सत्यशोधक विवाह की प्रथा शुरू की, इस प्रथा में पति-पत्नी को शिक्षा और समानता की शपथ दिलाई जाती थी। ऐसा नहीं है कि उनके इन कार्यों को कोई देख नहीं रहा था। साल 1852 में ब्रिटिश सरकार ने सावित्रीबाई फुले को राज्य का सर्वश्रेष्ठ शिक्षक घोषित किया। शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके कार्यों के लिए 1853 में सरकार ने उनकी प्रशंसा भी की। 
खुद किया पति का अंतिम संस्कार
1890 में उनके पति ज्योतिराव का निधन हो गया। सभी सामाजिक मानदंडों को पीछे छोड़ते हुए उन्होंने अपने पति का अंतिम संस्कार किया और उनकी चिता को अग्नि दी। उन्होंने ज्योतिराव की विरासत को आगे बढ़ाया और सत्यशोधक समाज की प्रमुख बन गईं। 
प्लेग ने ले ली जिंदगी
1897 में पूरे महाराष्ट्र में प्लेग की बीमारी फैल गई। इस बीमारी का दर्द उनसे देखा नहीं गया और प्रभावित क्षेत्रों में मदद के लिए निकल पड़ी। उन्होंने पुणे के हडपसर में प्लेग से पीड़ित मरीजों के लिए एक क्लिनिक भी खोली। वह एक 10 वर्षीय प्लेग से पीढ़ित बच्चे को गोद लेकर क्लीनिक ले जा रही थी। इसी दौरान वह भी प्लेग की शिकार हो गई। इसी प्लेग की बीमारी के चलते 10 मार्च 1897 को उन्होंने अंतिम सांस ली। 
आज भी हैं प्रेरणा
उनकी जिंदगी और कार्य भारतीय समाज में सामाजिक सुधार और महिला सशक्तिकरण के लिए एक वसीयतनामा की तरह हैं। वह आज भी कई महिला अधिकारों के कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा हैं।