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यौन हिंसा की शिकार बच्चियों की लड़ाई कौन लड़ेगा ?

Published - Mon 10, Jun 2019

अपराजिता- महिला अन्याय के खिलाफ जंग

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 अंजलि सिन्हा 

(वुमन एक्टविस्ट व दिल्ली विश्वविद्यालय में महिला मामलों की काउंसलर )

कठुआ की घटना ने हर इंसान के दिल को दहला दिया था और देश में यह घटना चर्चा का विषय बनी थी। आज कठुआ की घटना के अभियुक्तों को अदालत ने भी दोषी करार दिया और तीन दोषियों को उम्र कैद की सजा दी है। जम्मू के कठुआ में आठ वर्षीय बच्ची के साथ 6 लोगों ने बलात्कार किया और पकड़े जाने तथा पहचाने जाने के भय से पीड़ित की बेरहमी से हत्या कर दी थी। मुख्य आरोपी सांझीराम वहां की राजनीति में दखल रखता था और सत्ताधारी पार्टी से संबंधित था। उसे यह भरोसा था कि वह खुद बच निकलेगा और बाकियों को भी बचा लेगा। 
इधर अलीगढ़ में भी एक ढाई साल की बच्ची की हत्या कर दी गयी और आरोपी ने 10,000 की रकम जो उस पर उधार थी उसके कारण इस अपराध को अंजाम दिया है, ऐसा बताया जा रहा है। लेकिन यहां भी बच्ची अपना बचाव स्वयं नहीं कर सकती थी। पुलिस ने बार बार स्पष्ट किया है कि वह यौन हिंसा की शिकार नहीं हुई, लेकिन बिना किसी गलती के उसे मौत मिली।
छोटी बच्चियों के साथ जहां तक यौन अत्याचार का मामला है, हमारे समाज में यह समस्या अत्यन्त गंभीर हो गयी है। जो घटनायें खबरों में आ जाती है उनके अलावा बड़े पैमाने पर बच्चियां तथा किशोरियां यौन हिंसा की शिकार हो रही है। इसकी मुख्य वजह यही है कि आरोपी उनकी कमजोर स्थिति तथा अबोध होने का फायदा उठाता है, वे समझ भी नहीं पाती कि उनके साथ क्या हो रहा है ?
अहम सवाल यही है कि आखिर मासूम बच्चियों का बचाव हम सभी कैसे करें ? कहां कहां पहरा बिठाया जाए और कहां तक इन बालिकाओं को कैद करके रखा जाए। जब घटना सामने आती है तो समाज क्रोध में उबलता है और फिर उसे समाधान फांसी की सज़ा लगती है। सजा तो माना कि मिलनी चाहिए लेकिन अपराध को अंजाम देते समय क्या अपराधी सज़ा के बारे मे विचार करता है ? हम सभी ने निर्भया केस देखा और सजा भी फांसी की हुई, लेकिन उसी तरह की कई घटनायें सामने आ गयीं।

सामने नहीं आते अधिकांश मामले
पहली बात तो अधिकतर मामलों में लोग शिकायत दर्ज नहीं करते, जब शिकायत दर्ज होती है तो उसकी ठीक से सुनवाई नहीं होती और संदेह के आधार पर अपराधी बरी हो जाता है। इस व्यापक तथा गंभीर समस्या की समझ एवं निदान दोनों में ही हर स्तर पर सतहीकरण नज़र आता है। इसमें हम एक पक्ष सरकार एवं प्रशासन का देख सकते हैं और दूसरा पूरे समाज के वातावरण तथा इसमें महिलाओं के प्रति नज़रिया तथा हालात का देख सकते हैं।
उदाहरण के तौर पर कुछ समय पहले दिल्ली महिला आयोग की प्रमुख ने बच्चों पर बढ़ते यौन हमलों को लेकर बताया कि ऐसे मामलों में दोषसिद्धि दर बहुत कम है। या हम राज्यसभा के सांसद राजीव चंद्रशेखर द्वारा केन्द्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के सामने प्रस्तुत सवालों को देख सकते हैं, जो ऐसे सभी मामलों में सरकार की अकर्मण्यता तथा कानूनों में बने छिद्रों को उजागर करता है। 
समाज की मानसिकता अगर गड़बड़ है तो उसी से सुधर जाने की उम्मीद करना, यह एक तरह से अपना जिम्मा दूसरे पर ढकेलना है। किसी शहर में पुलिस अगर सख्त है तो आम लोग कानून का उल्लंघन करने से भी बचते हैं, फिर देश के पैमाने पर कानून व्यवस्था चुस्त होगी तो यह पूरे देश की जनता में सन्देश जाएगा कि अब कानून तोड़ने से सज़ा मिल सकती है और वह कानून का पालन करने का तय कर सकता है। कानून व्यवस्था को चुस्त और पारदर्शी बनाना ही होगा, लेकिन इसी के साथ हर स्तर पर स्वस्थ मानसिकता एवं स्त्री पुरूष के बीच समान तथा सहज सम्बन्ध के लिए युद्धस्तर पर काम करना होगा। 
यदि समाज में महिलाओं के साथ कहीं भी किसी भी प्रकार का भेदभाव होगा तो उत्पीड़न की सम्भावना बनी रहेगी क्योंकि अपराधी में असम्मान की मानसिकता पहले बनती है। अपराध कोई भी हो उसे स्थायी रूप से समाप्त करने के लिए जिम्मेदारी सुनिश्चित करनी पड़ती है तथा यह पूछना होता है कि अभी तक इसका उपाय न निकाल सकने की क्या क्या वजहें हैं ?
दरअसल स्त्रिायों या बच्चों के साथ होने वाले अपराधों के मामले कई दूसरे स्तर के मामलों तथा नीतियों से जुड़े होते हैं जिसमें हर व्यक्ति एवं नागरिक के अधिकार सुनिश्चित होने के साथ ही उसकी चेतना का समग्र विकास कैसे हो जिसमें वह जिम्मेदारी तथा कर्तव्यबोध से लैस होते हुए बड़ा हो सके। यह काम किसी स्वयंसेवी संगठन के दम पर करना असम्भव है क्योंकि इसके लिए हर स्तर पर पहुंच जरूरी है जो सरकार ही अपनी पूरी पॉलिसी बदल कर कर सकती है। 
दूसरा प्रशासनिक स्तर पर पूरे पुलिस तंत्र में सुधार की बात बार बार होती रहती है। इस महकमे की अपनी मानसिकता सुधारने के साथ ही पूरी कार्यप्रणाली बदलने की जरूरत है। वह नागरिक इकाई के रूप में लोगों के बीच रचे बसे न कि थानों की भूमिका घटना घटने के बाद की हो।
अब रही बात समाज की जहां से पीड़ित और अपराधी दोनों आते हैं। पीड़ित की श्रेणी में किसी के जाने और अपराधी की श्रेणी में पहुंचने की प्रक्रिया समाज में ही चलती है। यहीं बीमार तथा कुंठित मानसिकता तैयार होती है तथा हिंसक यौन प्रवृत्ति वाले लोग बनते हैं। कुंठित यौन प्रव्रत्ति तथा घटिया मानसिकता महज उनमें नहीं होती जो अपराध करने का दुस्साहस जुटा लेते हैं या जिन्हें ‘‘शिकार’’ मिल जाता है बल्कि बहुत बड़ी संख्या मौके की तलाश में रहती है। यह मौका बाहर के साथ-साथ घर के अन्दर भी तलाशा जाता है, इसीलिए बच्चियां और बच्चे भी घर के अन्दर तथा आसपड़ोस में भी असुरक्षित हो गये हैं।