कहा जाता है कि हर पुरुष की सफलता के पीछे एक नारी का हाथ होता है। एक तरफ वह घर की जिम्मेदारियां उठाकर पुरुष को छोटी-छोटी बातों से सुरक्षित करती है, वहीं वह एक निष्पक्ष सलाहकार के साथ-साथ हर गतिविधि को संबल देती है। महात्मा गांधी की जयंती से लेकर पुण्यतिथि तक देश-विदेश में बड़ी धूम धाम से मनाई जाती है, पर जिस महिला ने उन्हें जीवन भर संबल दिया, बापू को महात्मा बनाने में अपना अथाह योगदान दिया..उन्हें कोई नहीं याद करता। तो आज बात करते हैं गांधी जी की धर्म पत्नी कस्तूरबा गांधी की, जिनकी 22 फरवरी को पुण्यतिथि थी....
कस्तूरबा गांधी, महात्मा गांधी के ‘स्वतंत्रता कुमुक’ की पहली महिला प्रतिभागी थीं। उनका अपना एक दृष्टिकोण था, उन्हें आजादी का मोल और महिलाओं में शिक्षा की महत्ता का पूरा भान था। स्वतंत्र भारत के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना उन्होंने भी की थी। अपने नेतृत्व के गुणों का परिचय भी दिया था। जब-जब गांधी जी जेल गए, वो स्वाधीनता संग्राम के सभी अहिंसक प्रयासों में अग्रणी बनी रहीं। ‘बा’ को आज कोई भी याद नहीं करता, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि वह गांधी जी के पीछे खड़ी नहीं होतीं तो, आजादी हमसे दूर भी खिसक सकती थी। यदि गांधी जी राष्ट्र-पिता हैं तो वाकई कस्तूरबा राष्ट्र-माता, जिन्होंने एक साथ अपने पति और देश दोनों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए इसी माटी में अपना नश्वर शरीर त्याग दिया। 22 फरवरी को उनकी पुण्यतिथि थी।
छह महीने बड़ी थीं पति से, हुआ था बाल विवाह
गुजरात में काठियावाड़ के पोरबंदर में 11 अप्रैल, 1869 को जन्मीं कस्तूरबा के पिता गोकुलदास मकनजी साधारण व्यापारी थे। कस्तूरबा उनकी तीसरी संतान थीं। उस जमाने में लड़कियों को पढ़ाने की बजाय छोटी उम्र मं ही उनकी शादी कर दी जाती थी। इसलिए कस्तूरबा भी बचपन में निरक्षर थीं और सात साल की अवस्था में छह साल के मोहनदास के साथ उनकी सगाई कर दी गई। 13 साल की आयु में उन दोनों का विवाह हो गया। जिस उम्र में बच्चे शरारतें करते और दूसरों पर निर्भर रहते हैं, उस उम्र में कस्तूरबा ने पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन आरंभ कर दिया। निरक्षर होने के बावजूद कस्तूरबा के अंदर अच्छे-बुरे को पहचानने का विवेक था। उन्होंने ताउम्र बुराई का डटकर सामना किया और कई मौकों पर तो गांधीजी को चेतावनी देने से भी नहीं चूकीं। बकौल महात्मा गांधी, “जो लोग मेरे और बा के निकट संपर्क में आए हैं, उनमें अधिक संख्या तो ऐसे लोगों की है, जो मेरी अपेक्षा बा पर कई गुना अधिक श्रद्धा रखते हैं”। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अपने पति और देश के लिए व्यतीत कर दिया। इस प्रकार देश की आजादी और सामाजिक उत्थान में कस्तूरबा गांधी ने बहुमूल्य योगदान दिया।
बापू भी उन्हें ‘बा’ कहकर पुकारते थे
कहते हैं कि बापू ने उन पर आरंभ से ही अंकुश रखने का प्रयास किया और चाहा कि कस्तूरबा बिना उनसे अनुमति लिए कहीं न जाएं, किंतु वे उन्हें जितना दबाते उतना ही वे आजादी लेतीं और जहां चाहतीं, चली जातीं। वह गांधी जी के धार्मिक एवं देशसेवा के महाव्रतों में सदैव उनके साथ रहीं। यही उनके सारे जीवन का सार है। गांधी जी के अनेक उपवासों में ‘बा’ प्राय: उनके साथ रहीं और उनकी जिम्मेदारियों का निर्वाह करती रहीं। आजादी की जंग में जब भी गांधी जी गिरफ्तार हुए, सारा दारोमदार कस्तूरबा के कन्धों पर आन पड़ा। यदि इतने सब के बीच गांधी जी स्वस्थ रहे और नियमित दिनचर्या का पालन करते रहे तो इसके पीछे कस्तूरबा थीं, जो उनकी हर छोटी-छोटी बात का ध्यान रखतीं और हर तकलीफ अपने ऊपर ले लेती थीं। तभी तो गांधी जी ने कस्तूरबा को अपनी मां समान बताया था, जो उनका बच्चों जैसा ख्याल रखती थीं। इसीलिए बापू भी उन्हें ‘बा’ कहकर पुकारते थे।
दक्षिण अफ्रीका जाने से लेकर अपनी मृत्यु तक ‘बा’ गांधीजी का अनुसरण करती रहीं
विवाह पश्चात पति-पत्नी सन 1888 तक लगभग साथ-साथ ही रहे, लंकिन मोहनदास के इंग्लैंड प्रवास के बाद वो अकेली ही रहीं। मोहनदास के अनुपस्थिति में उन्होंने अपने बच्चे हरिलाल का पालन-पोषण किया। शिक्षा समाप्त करने के बाद गांधी इंग्लैंड से लौट आए पर शीघ्र ही उन्हें दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। इसके पश्चात मोहनदास सन 1896 में भारत आए और तब कस्तूरबा को अपने साथ ले गए। दक्षिण अफ्रीका जाने से लेकर अपनी मृत्यु तक ‘बा’ महात्मा गांधी का अनुसरण करती रहीं। उन्होंने अपने जीवन को गां धी की तरह ही सादा और साधारण बना लिया था। वे गांधी जी के सभी कार्यों में सदैव उनके साथ रहीं। बापू ने स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अनेकों उपवास रखे और इन उपवासों में वो अक्सर उनके साथ रहीं और देखभाल करती रहीं।
जेल में अफसरों को झुकना पड़ा था बा के सामने
एक वाकया कस्तूरबा बा की जीवटता और संस्कारों का परिचायक है। जब दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की दयनीय स्थिति के खिलाफ प्रदर्शन आयोजित करने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन महीने कैद की सजा सुनाई गई। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका में 1913 में एक ऐसा कानून पास हुआ जिसमें ईसाई मत का अनुसरण किया गया। इस कानून से विवाह विभाग के अधिकारी के यहां दर्ज किए गए विवाह के अतिरिक्त अन्य विवाहों की मान्यता अमान्य कर दी गई थी। गांधी जी ने इस कानून को रद्द कराने का बहुत प्रयास किया पर जब वे सफल नहीं हुए, तब उन्होंने सत्याग्रह करने का निश्चय किया और उसमें सम्मिलित होने के लिए महिलाओं का भी आह्वान किया। इस बात की चर्चा उन्होंने अन्य महिलाओं से तो की, लेकिन बा से नहीं की। वे नहीं चाहते थे कि उनकी पत्नी उनके कहने से सत्याग्रहियों में जाएं और फिर बाद में कठिनाइयों में पड़कर विषम परिस्थिति उपस्थित करें। जब कस्तूरबा ने देखा कि गांधी जी ने उनसे सत्याग्रह में भाग लेने की कोई चर्चा नहीं की तो बड़ी दु:खी हुईं और फिर वे स्वेच्छ से सत्याग्रह में सम्मिलित हुईं और तीन अन्य महिलाओं के साथ जेल गईं। जेल में मांसाहारी भोजन मिलता था, अत: उन्होंने फलाहार करने का निश्चय किया पर अधिकारियों ने उनके अनुरोधको नहीं माना तो बा ने उपवास किया। अंतत: पांचवें दिन अधिकारियों को झुकना पड़ा। किंतु जो फल दिए गए वह उनका पेट भरने के लिए पर्याप्त नहीं थे। अत: कस्तूरबा को तीन महीने जेल में आधे पेट भोजन पर रहना पड़ा। जब वे जेल से छूटीं तो उनका शरीर ढांचा मात्र रह गया था, पर उनके हौसले में कोई कमी नहीं थी।
बापू के जेल जाने पर खुद पकड़ ली मशाल
भारत लौटने के बाद भी वे गांधी जी के साथ काफी सक्रिय रहीं। चंपारन के सत्याग्रह के समय बा तिहरवा ग्राम में रहकर गांवों में घूमतीं और दवा वितरण करती रहीं। उनके इस काम में निलहे गोरों को राजनीति की बू आई। उन्होंने बा की अनुपस्थिति में उनकी झोपड़ी जलवा दी। बा की उस झोपड़ी में बच्चे पढ़ते थे। अपनी यह पाठशाला एक दिन के लिए भी बंद करना उन्हें पसंद नहीं था, अत: उन्होंने सारी रात जागकर घास का एक दूसरा झोपड़ा खड़ा किया। इसी प्रकार खेड़ा सत्याग्रह के समय बा स्त्रियों में घूम घूमकर उन्हें उत्साहित करती रहीं। जब 1932 में हरिजनों के प्रश्न को लेकर बापू ने यरवदा जेल में आमरण उपवास आरंभ किया उस समय बा साबरमती जेल में थीं। उस समय वे बहुत बेचैन हो उठीं और उन्हें तभी चैन मिला जब वे यरवदा जेल भेजी गईं। साल 1922 में गांधी जी की गिरफ्तारी के पश्चात उन्होंने वीरांगनाओं जैसा वक्तव्य दिया और इस गिरफ्तारी के विरोध में विदेशी कपड़ों के परित्याग का आह्वान किया। उन्होंने गांधीजी का संदेश प्रसारित करने के लिए गुजरात के गांवों का दौरा भी किया। 1930 में दांडी और धरासणा के बाद जब बापू जेल चले गए तब बा ने उनका स्थान लिया और लोगों का मनोबल बढ़ाती रहीं। क्रन्तिकारी गतिविधियों के कारण 1932 और 1933 में उनका अधिकांश समय जेल में ही बीता।
दिल का दौरा पड़ा और बा हमेशा के लिए दुनिया छोड़कर चली गईं
सन 1939 में उन्होंने राजकोट रियासत के राजा के विरोध में भी सत्याग्रह में भाग लिया। वहां के शासक ठाकुर साहब ने प्रजा को कुछ अधिकार देना स्वीकार किया था परन्तु बाद में वो अपने वादे से मुकर गए। ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान अंग्रेजी सरकार ने बापू समेत कांग्रेस के सभी शीर्ष नेताओं को 9 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिया। इसके पश्चात बा ने मुंबई के शिवाजी पार्क में भाषण करने का निश्चय किया पर वहां पहुंचने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और पूना के आगा खां महल में भेज दिया गया। सरकार ने गांधी जी को भी यहीं रखा था। उस समय वे अस्वस्थ थीं। 15 अगस्त को जब यकायक गांधी जी के निजी सचिव महादेव देसाई ने महाप्रयाण किया तो वे बार बार यही कहती रहीं-महादेव क्यों गया, मैं क्यों नहीं? बाद में महादेव देसाई का चितास्थान उनके लिए शंकर-महादेव का मंदिर सा बन गया। वे नित्य वहां जातीं, समाधि की प्रदक्षिणा कर उसे नमस्कार करतीं। वे उसपर दीया भी जलवातीं। यह उनके लिए सिर्फ दीया नहीं था, बल्कि इसमें वह आने वाली आजादी की लौ भी देख रही थीं। कस्तूरबा की दिली तमन्ना देश को आजाद देखने की थी, पर उनका गिरफ्तारी के बाद उनका जो स्वास्थ्य बिगड़ा वह फिर अंतत: उन्हें मौत की तरफ ले गया और 22 फरवरी, 1944 को वे सदा के लिए सो गईं।
गांधी जी राष्ट्र-पिता हैं तो कस्तूरबा राष्ट्र-माता
दुर्भाग्यवश कस्तूरबा को आज कोई भी याद नहीं करता, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि वे गांधी जी के पीछे खड़ी नहीं होती तो, आजादी हमसे दूर भी खिसक सकती थी। यदि गांधी जी राष्ट्र-पिता हैं तो वाकई कस्तूरबा राष्ट्र-माता, जिन्होंने एक साथ अपने पति और देश दोनों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए इसी माटी में अपना नश्वर शरीर त्याग दिया। बा को कोटि-कोटि नमन !!
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.