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गरीब बच्चों के जन्मदिन को सालों से खास बना रहीं भोपाल की मनीषा पवार

Published - Mon 01, Mar 2021

गरीब-जरूरतमंदों की मदद का जज्बा हो, तो उसके लिए न तो बहुत पैसों की जरूरत है और न ही किसी लंबी-चौड़ी टीम की। यह बात सही कर दिखाई है भोपाल की रहने वालीं मनीषा पवार विवेक ने। वह कई सालों से झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बच्चों के जन्मदिन को खास बनाती आ रही हैं। वह बच्चों को गिफ्ट देने के साथ ही उनसे बकायदा केक भी कटवाती हैं। इस कारण गरीब परिवार के लोग उन्हें 'केक वाली दीदी' भी कहते हैं। बच्चों के अलावा वह गरीब महिलाओं-पुरुषों की भी मदद करती हैं। वह अपने परिचितों-पड़ोसियों से उनके पुराने कपड़े इकट्ठा कर खुद उन्हें साफ और प्रेस कर गरीबों में बांटती हैं।

नई दिल्ली। भोपाल की रहने वालीं मनीषा पवार विवेक जब भी गरीब लोगों को फटे-पुराने कपड़ों में देखतीं, उन्हें काफी दया आती। वह उनकी मदद करना चाहती थीं। ऐसे ही वह जब किसी शादी-पार्टी में जातीं तो वैवाहिक पंडालों के बाहर गरीब बच्चों की कतार देख काफी दुखी होती थीं। इस बारे में उन्होंने अपने पति से बात की और इन गरीबों की मदद करने का फैसला लिया, लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि बड़ी संख्या में गरीबों की मदद की जा सके। कई दिनों तक सोच-विचार करने के बाद एक दिन मनीषा ने अपने घर में रखे उन कपड़ों को निकाला, जिनका वह कुछ समय से इस्तेमाल नहीं कर रही थीं। इन कपड़ों को अच्छे से धुलने के बाद उन्होंने प्रेस किया और पास की एक झुग्गी बस्ती में बांटने पहुंच गईं। इन पुराने कपड़ों के लिए गरीबों में मारामारी देख उन्होंने आगे भी ऐसा करने का फैसला किया और तब से शुरू हुआ यह सफर आज भी जारी है। इसके पीछे मनीषा की सोच है कि गरीबों को उनकी गरीबी का अहसास क्यों दिलाया जाए, उन्हें यह सोचने पर मजबूर क्यों किया जाए कि वे सिर्फ फटे-पुराने गंदे कपड़ों के हकदार हैं।

बचपन से ही था गरीबों की मदद का जज्बा

समाज के लिए कुछ करने का जज्बा मनीषा में बचपन से ही था। उस दौर में भी उनसे जितना हो पाता, वे दूसरों की मदद करती थीं। मनीषा कहती हैं, मेरा शुरू से यह मानना रहा है कि हमें समाज में खुशियां बांटनी चाहिए, खासकर ऐसे लोगों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरने का एक अलग ही सुख मिलता है, जिनके लिए खुशियां भी सोने जितनी महंगी हैं। मेरी कोशिश होती है कि जितना बन सके करूं। मैं पहले भी अकेले यह काम करती थी और आज भी अकेली हूं। हां, इतना जरूर है कि अब लोग मेरे इस अभियान में सहयोग देने के लिए आगे आने लगे हैं।

संस्था के बर्ताव से आहत हो खुद मदद का उठाया बीड़ा

अकेले ही इस अभियान को शुरू करने के बारे में मनीषा बताती हैं कि, पहले मैंने एक संस्था के माध्यम से गरीबों की मदद का फैसला किया था। मैं काफी कपड़े लेकर संस्था के कार्यालय में गई थी। मैं अपने हाथों से बच्चों को कपड़े बांटना चाहती थी, लेकिन संस्था के कर्मचारियों ने ऐसा नहीं करने दिया। उन्होंने कहा कि आप यहीं रख दीजिए, हम बच्चों को दे देंगे। उस संस्था को सरकारी अनुदान मिलता था, इसके बावजूद बच्चों की स्थिति अच्छी नहीं थी। तब मुझे लगा कि ऐसी संस्था को कुछ देने से अच्छा है सड़कों पर घूमने वाले उन लोगों की मदद की जाए, जिन्हें वास्तव में इसकी जरूरत है। इसके बाद मैंने अपनी एक दोस्त के साथ सर्दियों के मौसम में अलसुबह और देर रात सड़कों पर घूम-घूमकर जरूरतमंदों को गर्म कपड़े बांटे। तब से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक जारी है।
     
मासूम चेहरों पर खुशी के लिए कटवाती हूं केक

मनीषा गरीबों में केवल कपड़े ही नहीं बांटतीं, बल्कि झुग्गी बस्तियों में जाकर छोटे बच्चों से उनके जन्मदिन पर केक भी कटवाती हैं। इस वजह से बच्चे उन्हें ‘केक वाली दीदी’ कहकर पुकारते हैं।
झुग्गी बस्तियों में रहने वाले बच्चों के लिए केक लेकर जाने के पीछे भी एक कहानी है। मनीषा बताती हैं कि बच्चों के पुराने कपड़े मिलना थोड़ा मुश्किल रहता है, ऐसे में जिन बच्चों को कुछ नहीं मिल पाता था, वे उदास हो जाते थे और उनकी यह उदासी मुझे अच्छी नहीं लगती थी। इसलिए मैंने बच्चों के लिए केक और टॉफियां आदि लेकर जाना शुरू कर दिया। मैं जब भी जाती हूं, एक केक ले जाती हूं और किसी बच्चे से उसे कटवा देती हूं। इस तरह उनका जन्मदिन भी मन जाता है। केक देखकर बच्चों के चेहरे पर जो खुशी झलकती है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।

साफ-सफाई के लिए भी करती हैं जागरूक

मनीषा झुग्गी बस्ती के लोगों को साफ-सफाई के बारे में भी जागरूक करती हैं। महिलाओं को मुफ्त सेनेटरी नैपकिन भी उपलब्ध कराती हैं। मनीषा अपने इन प्रयासों को समाजसेवा नहीं मानती हैं। वह कहती हैं कि सामाजिक संतुलन बनाए रखना हम सबकी जिम्मेदारी है। यदि हमारे पास कुछ अतिरिक्त है, तो उसे दूसरों में बांटने में क्या हर्ज है? यही वजह है कि कई सालों से गरीबों-जरुरतमंदों का सहारा बनने के बावजूद उन्होंने कभी एनजीओ शुरू करने के बारे में नहीं सोचा। मनीषा के मुताबिक, कई लोगों ने उनसे कहा कि अब उन्हें अपना एनजीओ शुरू कर लेना चाहिए, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। उन्हें लगता है कि किसी की मदद करने या किसी के चेहरे पर मुस्कान बिखेरने के लिए संस्था का अस्तित्व में आना जरूरी नहीं।