मध्य प्रदेश की माया ने बचपन में परिवार की जिम्मेदारियों को तो उठाया ही साथ शिक्षा के लिए अपने परिजनों ही बगावत की। आज वो लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए काम कर रही हैं।
नई दिल्ली। महिलाओं को हमेशा अबला ही समझा जाता है, लेकिन जब नारी कुछ करने की ठान लेती है ,तो कुछ ऐसा कर दिखाती है, जो समाज को आईना दिखाने के लिए काफी है। कुछ ऐसा ही एमपी की माया बोहरा ने कर दिखाया। एक पारंपरिक, रूढ़ीवादी जैन परिवार में पली-बढ़ी माया ने अपने लिए मुकाम चुना और घर की चाहरदीवारी से निकलकर एक मिसाल कायम की है। माया का जन्म कोलकता में हुआ। जन्म के कुछ समय बाद दादा दादी उन्हें राजस्थान के एक गांव ले आए। कारण था कि मां की तबीयत खराब रहती थी। बचपन में चंचल माया जब आठ साल की हुईं तो कोलकता वापिस आ गईं। लेकिन यहां परिवार में छोटी बहन और भाई से तालमेल बैठाना आसान न था। मां बीमार रहती थीं तो भाई-बहनों की जिम्मेदारी माया पर ही थी। इतनी छोटी सी उम्र में घर की जिम्मेदारियों को संभालती हुई माया बड़ी हुईं। माया दसवीं कक्षा से आगे पढ़ना चाहती थीं, लेकिन कैसे पढ़ा जाए ये उनके लिए एक समस्या थी। पढ़ाई के लिए उनका संघर्ष बचपन से ही बना रहा है। मारवाड़ी कल्चर में लड़कियों की शिक्षा के प्रति उतनी जागरूकता नहीं थी। इसलिए 10वीं पास करने के बाद उनसे भी अपेक्षा की जाने लगी कि वह पढ़ाई छोड़कर केवल घर के काम में ध्यान दें। माया ने ठान लिया कि वो आगे पढ़ेंगी।
घरवालों को दिलाया विश्वास
माया ने अपने घरवालों को विश्वास दिलाया कि उनकी पढ़ाई से घर का काम प्रभावित नहीं होगा, लेकिन फिर भी परिवार उनपर पढ़ाई छोड़ने का दबाव बना रहा था। लेकिन माया अड़ी रहीं कक्षा 11वीं में परिवार फरीदाबाद शिफ्ट हो गया और उनपर फिर पढ़ाई छोड़ने का दबाव बनाया जाता रहा, पर माया अड़ी रहीं। जब पढ़ाई छोड़ने का ज्यादा दबाव बना तो रेगुलर की बजाय प्राइवेट करना शुरू किया और ग्रेजुएशन किया। इसके बाद तो समस्या ये आ खड़ी हुई की शादी का दबाव बनाया जाने लगा। माया ने अपने पिताजी से कहा कि जब लड़का मिलेगा तब शादी कर देना लेकिन अभी उसे पढ़ने दिया जाए। उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य में एमए के लिए फार्म भर दिया। किसी तरह तीन सेमिस्टर पास कर लिए। चौथे सेमिस्टर की परीक्षा से पहले मेरी सगाई हो गई। अपने ससुराल पक्ष से माया ने बात रखी कि परीक्षा होने वाली है क्या वो परीक्षा दे सकती हैं और उन्हें मंजूरी मिल गई और इस तरह उन्होंने पढ़ाई पूरी की।
शिक्षा के लिए दिखाया गजब का साहस
पारंपरिक रूढ़ीवादी परिवार में जन्मीं माया ने पढ़ने के लिए गजब का साहस दिखाया और लगातार तमाम तरह के दबावों को झेलते हुए पढ़ना जारी रखा। 12 दिसंबर 1990 को उनकी शादी हुई और कुछ दिन बाद एमए की परीक्षा शुरू हो रही थी। शादी के बाद ससुराल पक्ष वाले मुकर गए और कहा कि कोई जरूरत नहीं है अब पढ़ने की। माया का ससुराल एक पारंपरिक मारवाड़ी जैन परिवार था, जिसमें महिलाओं पर तमाम बंदिशें थीं। माया के पति उसके मन की पीड़ा को समझते परंतु अपने मां के खिलाफ नहीं जाना चाहते थे। कुछ समय बाद वह पति के साथ इंदौर शिफ्ट हो गईं, तो पति ने उन्हें लॉ का फार्म लाकर दिया। माया वो भरा और घर बैठे पढ़ाई की, लेकिन कुछ पल्ले नहीं पड़ा, तो उसे छोड़ दिया। माया के मन में ये बात हमेशा रही कि उन्हें पढ़ना है, बढ़ना है। दो बेटियां होने के बाद भी माया ने अपने सपने को नहीं मरने दिया। दस साल बीतने पर माया ने पेंटिंग सीखी। एक प्रदर्शनी में पेंटिंग लगाई तो लोगों ने काफी तारीफ की। इसके बाद मैंने फिर से पेंटिग में औपचारिक प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया। हर बार की तरह फिर वही हुआ कि जब लोग तारीफ करने लगे, पेटिंग खरीदने की बात करने लगे तो ससुराल वालों ने कहा, हमारे घर की बहू, पेंटिंग नहीं बेचेगी।”माया को इस बात से काफी दुःख हुआ और फिर उसने पेंटिग करना छोड़ दिया और घर के आस-पड़ोस के कुछ बच्चों को पेटिंग सिखाने लगीं।
मनोविज्ञान में रूचि जागी
अपन साथ हो रही नाइंसाफी के चलते माया की रूचि मनोविज्ञान में जागी। माया के पास लोग जबरन जब अपने बच्चे पेंटिंग सीखने के लिए छोड़कर जाते थे, तो माया बच्चों की मनोदशा समझती थीं कि उनका मन नहीं है,बस जबरन माता-पिता थोप रहे हैं। माया ने बाल मनोविज्ञान पढ़ना शुरू किया। बच्चों को पढ़ाने के साथ ही साथ मैं भी उनके साथ अपनी किताबें लेकर पढ़ने बैठ जाती थी। माया ने जब मनोविज्ञान की किताबें पढ़ना शुरू किया तो समझ आया कि असामान्य होना किसे कहते हैं। मेंटल हेल्थ के मसले क्या हैं? बेटियों के कॉलेज में जाने के दौरान उन्हें बाल मनोविज्ञान की प्रोफेसर डॉ. सरोज कोठारी से मिलीं और बात की। उन्होंने माया को सुझाव दिया कि वो फिर से पढ़ाई करें। माया कॉलेज जाने लगीं। इंदौर के एक कॉलेज में एमए में एडमिशन ले लिया और दो साल कॉलेज पढ़ने गई। लेकिन इस बीच हर दिन कोई न कोई पारिवारिक परेशानी सामने आ जाती थी। रोजाना कॉलेज न जाने के कारण उन्हें मनोविज्ञान के एचओडी ने मनोविज्ञान पढ़ने में नाकाबिल घोषित कर दिया। इसके एक साल वो शांत बैठी रहीं। एक दिन अचानक से उनहें डॉ. कोठारी मिलीं जिन्होंने माया को पढ़ने के लिए मोटिवेट किया था। माया ने उन्हें सारी बात बताई, तो डॉ. कोठारी ने अपने कॉलेज बुलाया। बस फिर क्या था। इसके बाद माया ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। एमए साइकोलॉजी, पूरा होने के बाद माया ने पीजी डिप्लोमा इन गाइडेंस एंड काउंसलिंग, ग्रैजुएशन डिप्लोमा इन रिहेबलिटेशन साइकोलॉजी, डिप्लोमा इन अर्ली चाइल्डहुड एंड स्पेशल एजुकेशन, कॉगनेटिव बिहेवियर थैरेपी और रेशनल मोटिव थैरेपी में फार्मल ट्रेनिंग और अब वे पीएचडी कर रही हैं।
लोगों को करती हैं जागरुक
माया मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लोगों को जागरूक करती हैं। माया लोगों को मदद देने के लिए एक स्पंदन हेल्पलाइन चलाती हैं, जो अब तक 18000 लोगों की जान बचा चुकी है। तरह माया ने “लक्ष्य-साइकोडायग्नोस्टिक सेंटर” भी खोला और आज माया यूएनएफपीए, मध्यप्रदेश शासन, समग्र शिक्षा अभियान और आर.ई.सी. फाउंडेशन के संयुक्त तत्वाधान में शासकिय शालाओं में पढ़ने वालों कक्षा 9वीं से 12वीं तक के विद्यार्थियों के लिए उमंग हेल्पलाइन का संचालन कर रही है।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.