बुंदेले हरबोलों के मुंहसे हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसीवाली रानी थी...क्या आप जानते हैं कि कर्नाटक की भी एक रानी ने अंग्रेजों से खूब लोहा लिया था। 'कर्नाटक की लक्ष्मीबाई' का नाम है रानी चेन्नमा। चेन्नम्मा ने लक्ष्मीबाई से पहले ही अंग्रेजों की सत्ता को सशस्त्र चुनौती दी थी। अंग्रेजों पर उनकी पहली जीत की याद में "कित्तूर उत्सव" आज भी मनाया जाता है। रानी चेनम्मा की मूर्ति भारत की संसद के बाहर भी लगी हुई है, ये याद दिलाते हुए कि उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का ‘सुबह का तारा’ कहा जाता है।
चेन्नम्मा का अर्थ होता है सुंदर कन्या। 23 अक्टूबर, 1778 ई. में कर्नाटक के बेलगावी जिले में काकातीय राजवंश (लिंगायत समुदाय) में चेनम्मा का जन्म हुआ। पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने उसका पालन-पोषण राजकुल के पुत्रों की भांति किया। उन्हें संस्कृत, कन्नड़, मराठी और उर्दू भाषा के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की भी शिक्षा दी गई। चेन्नम्मा की बहादुरी से पूरा गांव परिचित था।
किया बाघ का शिकार
चेनम्मा जब 15 साल की थीं तो एक दिन वन में आखेट (शिकार) के दौरान उन्होंने दूर झाड़ियों में एक बाघ देखा। बस फिर क्या था, कमान से तीर निकाला, धनुष की प्रत्यंचा खींची और तीर छोड़ दिया। बाघ वहीं चित्त हो गया। घोड़ा दौड़ाते हुए जब वे बाघ के पास पहुंचीं, तभी झाड़ियों के पीछे से एक और घुड़सवार निकल आया। उसने बाघ की तरफ इशारा करते हुए कहा-ये मेरा तीर है। चेनम्मा बोलीं- बाघ उसके तीर से मरा है। शिकार पर आधिपत्य जमाने को लेकर दोनों के बीच लंबी बहस चली। हारकर घुड़सवार पीछे हट गया। ये घुड़सवार और कोई नहीं, कित्तूर के राजा मल्लसर्ज देसाई थे।
दरअसल, काकती के पास ही कित्तूर का भरा-पूरा साम्राज्य था। उस समय कित्तूर में देसाई राजवंश का राज था और राजा मल्लसर्ज सिंहासन पर आसीन थे। राजा मल्लसर्ज को शिकार करना पसंद था। उन्हें सूचना मिली थी कि पास के काकती गांव में एक नरभक्षी बाघ का आतंक फैला है। ऐसे में राजा ने लोगों को इस बाघ से छुटकारा दिलाने की ठानी। वे काकती गांव गए और बाघ को ढूंढने लगे। जैसे ही उन्हें बाघ की आहट मिली, उन्होंने तुरंत तीर चला दिया। उधर चेनम्मा ने भी बाघ पर तीर चलाया था। राजा मल्लसर्ज चेनम्मा की बहादुरी और दृढ़ता पर रीझ गए। उन्होंने चेनम्मा के पिता को संदेश भेजा कि वो उनकी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं।
15 साल की चेन्नम्मा कित्तूर रानी बन गईं
चेनम्मा के परिवार ने शादी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दोनों की शादी धूमधाम से हुई और चेनम्मा कित्तूर की रानी बन गईं। मल्लसर्ज रानी चेन्नम्मा की राजनीतिक कुशलता से भी भलीभांति परिचित थे। राज्य के शासन प्रबंध में वे रानी की सलाह लिया करते थे। उनका एक बेटा भी हुआ, जिसका नाम रुद्रसर्ज रखा गया। कित्तूर उन दिनों मैसूर के उत्तर में एक छोटा स्वतंत्र राज्य था, लेकिन यह बड़ा संपन्न था। यहां हीरे-जवाहरात के बाजार लगा करते थे और दूर-दूर के व्यापारी आया करते थे। इधर, चेनम्मा सुखमय जीवन बिता रही थीं, पर उनके भाग्य में कुछ और ही लिखा था। 1824 में मल्लसर्ज का देहांत हो गया। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी इस वक्त उत्तर भारत में अपने दांत गड़ा चुकी थी और अब उनकी नजर कित्तूर की तरफ गई, लेकिन रानी का बेटा मौजूद था। इस वजह से उनका ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ यहां इस्तेमाल नहीं हो सकता था। डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स के तहत अगर किसी राजा की मौत बिना किसी वारिस के हो जाती थी, तो उसका राज्य लैप्स होकर कंपनी के अधीन आ जाता था, लेकिन मल्लसर्ज देसाई का बेटा जिंदा था।
पति की मौत के बाद संभाली सत्ता
किस्मत का खेल ये हुआ कि उसी साल यानी 1824 में चेन्नम्मा के पुत्र की अचानक तबियत खराब हो गई और वो चल बसा। तब चेनम्मा ने मल्लसर्ज की बड़ी रानी रुद्रम्मा के पुत्र शिवलिंग को गद्दी पर बैठाया और पीछे से चेन्नम्मा राजकाज चलाने लगीं।
(अंग्रेजों की नीति ‘डाक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ के तहत दत्तक पुत्रों को राज करने का अधिकार नहीं था। ऐसी स्थिति आने पर अंग्रेज उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लेते थे। हालांकि, यह नीति अंग्रेजों की केवल एक चाल थी ताकि वे ज्यादा से ज्यादा राज्यों और रियासतों का विलय ईस्ट इंडिया कंपनी में कर सकें।)
ईस्ट इंडिया कंपनी ने शिवलिंगप्पा को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे। आधा राज्य देने का लालच देकर उन्होंने राज्य के कुछ देशद्रोहियों को भी अपनी ओर मिला लिया। पर रानी चेन्नम्मा ने स्पष्ट उत्तर दिया कि उत्तराधिकारी का मामला हमारा अपना मामला है, अंग्रेजों का इससे कोई लेना-देना नहीं। साथ ही उसने अपनी जनता से कहा कि जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूंद है, कित्तूर को कोई नहीं ले सकता।
अंग्रेजों को दी जबरदस्त शिकस्त
कित्तूर का राज्य धारवाड़ कलेक्टोरेट के तहत आ गया। इसका इंचार्ज था सार्जेंट जॉन थैकरे। कमिश्नर मिस्टर चैप्लिन ने कित्तूर को संदेश भेजा कि कंपनी का राज स्वीकार कर लो। तब रानी चेनम्मा ने बॉम्बे के गवर्नर लार्ड एल्फिंस्टोन को इस सम्बन्ध में पत्र भी लिखा और अपने मामले में दखल करने की मांग की, लेकिन उनकी सुनी नहीं गई और मांग खारिज कर दी गई।
अंग्रेजों को लगा कि आज नहीं तो कल रानी चेन्नम्मा कित्तूर उन्हें दे देगी। पर उन्हें नहीं पता था कि यही रानी चेन्नम्मा भारत में उनके पतन की शुरुआत बनेंगी। ब्रिटिश सेना ने रानी के रवैये से खफा हो गई। अंग्रेजों ने 20 हजार से ज्यादा सैनिक और 400 से ज्यादा बंदूकें लेकर कित्तूर का किला घेर लिया। वो 23 सितंबर, 1824 का दिन था। किले के फाटक बंद थे। थैकरे ने दस मिनट के अंदर आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी। इतने में अकस्मात किले के फाटक खुले और दो हजार देशभक्तों की अपनी सेना के साथ रानी चेन्नम्मा मर्दाने वेश में अंग्रेजों की सेना पर टूट पड़ीं। सार्जेंट जॉन थैकरे मारा गया। दो ब्रिटिश अफसरों को बंधक बना लिया गया। सांगोली रायन्ना ने भी युद्ध में रानी के साथ खड़े रहकर भरपूर मदद की। अंग्रेजों ने मद्रास और मुंबई से कुमुक मंगा कर 3 दिसंबर, 1824 को फिर कित्तूर का किला घेर डाला। परन्तु उन्हें कित्तूर के देशभक्तों के सामने फिर पीछे हटना पड़ा। लेकिन चैप्लिन ने युद्ध जारी रखा। टुकड़ियों पर टुकड़ियां भेजता रहा। छोटे से राज्य के लोग काफी बलिदान कर चुके थे। चेन्नम्मा के नेतृत्व में उन्होंने विदेशियों का फिर सामना किया, पर इस बार वे टिक नहीं सके। रानी चेन्नम्मा को अंग्रेजों ने बैलहोंगल किले में बंदी बनाकर कैद में डाल दिया। उनके अनेक सहयोगियों को फांसी दे दी। कित्तूर की मनमानी लूट हुई। शिवलिंगप्पा को अंग्रेजों ने कैद कर लिया।
21 फरवरी, 1829 ई. को जेल के अंदर ही इस वीरांगना रानी चेन्नम्मा का देहांत हो गया|उनकी पहली जीत की याद में कित्तूर उत्सव आज भी मनाया जाता है। 22 से 24 अक्टूबर तक।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.