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आदिवासियों की मदद के लिए रेलू ने सीखा नाव चलाना

Published - Sun 24, Jan 2021

रेलू वसवे को जब बतौर आंगनबाड़ी कर्मी नंदुरबार जिले के एक आदिवासी गांव में तैनाती मिली, तो कई लोगों ने उन्हें नौकरी छोड़ने की सलाह दी। लेकिन अपनी जिम्मेदारी का एहसास होने के चलते उन्होंने ऐसा करने से इंकार किया और अपने इसी काम के जरिए उन्होंने लोगों को जागरूक करना शुरू किया। उन तक पहुंचने के लिए गांव चलाना भी सीखा।

relu vasve

नई दिल्ली। रेलू का जन्म महाराष्ट्र के नासिक में हुआ। उनकी मानें तो नर्मदा नदी के किनारे मेरा गांव था, वहीं पर मैं पली-बढ़ी। बचपन में ही मैंने तैराकी सीख ली। अपने परिवार के साथ रिश्तेदारों के घर जाने के लिए मैं नाव पर बैठकर नदी की यात्रा करती थी। ऐसे में पानी को लेकर रहने वाला डर मुझमें बचपन में ही खत्म हो गया। विवाह के बाद मैं नंदुरबार जिले में बस गई। वर्ष 2014 में बतौर आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मेरी नियुक्ति हुई। कुछ समय बाद मुझे जिले के सुदूरवर्ती गांव चिमलखाड़ी में काम करने का मौका मिला। चूंकि मेरा लक्ष्य बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए काम करना और उनके परिजनों को सही जानकारी देना है, इसलिए मैंने वहां नियमित जाना शुरू कर दिया। मेरे घर से वह जगह तकरीबन 17-18 किलोमीटर दूर है। पहले मैं नदी पार करने के लिए मछुआरों पर निर्भर रहती थी, इस वजह से काफी समय बर्बाद होता था। कई लोगों ने मुझे यह नौकरी छोड़ने की सलाह दी। पर मैंने इसे अपनाया, ताकि आदिवासी इलाकों की गर्भवती मांओं तक सही जानकारी और दवाएं पहुंचा सकूं और बच्चों को कुपोषण के खिलाफ लड़ाई में मजबूत कर सकूं।

नाव से सफर करने के लिए इसे चलाना सीखा 

दरअ​सल आदिवासी गांव चिमलखाड़ी से मेरे गांव तक सड़क नहीं है इसलिए मुझे नाव से वहां तक जाना होता है। मछुआरों की व्यस्तता के चलते मैंने खुद एक सहकर्मी के साथ मिलकर नाव उधार ली और धीरे-धीरे उसे चलाना सीख लिया। करीब दो माह बाद मैं खुद नाव चलाने में सक्षम थी और अकेले नाव से नदी पार करने लगी। 

परिवार को हमेशा रहता है डर

मेरे काम और यात्रा से परिवार के लोग हमेशा डरते हैं। मानसून के दौरान होने वाली मुश्किलें उनका डर और बढ़ा देती हैं। शाम को मैं थककर वापस लौटती हूं, तो उनके चेहरे मुझे उनके डर का एहसास दिलाते हैं। बावजूद इसके मैंने हिम्मत नहीं हारी है। अब मैं सप्ताह में पांच दिन नाव से अपनी यात्रा पूरी करती हूं। कोविड के समय मुझे प्रतिदिन वहां जाना पड़ा, क्योंकि यह मेरा कर्तव्य है।

जिम्मेदारी का एहसास है

कोविड के दौरान चूंकि गांववाले केंद्र तक आने में सक्षम नहीं थे। इसलिए गांव की गर्भवती महिलाओं और छह वर्ष से छोटे बच्चों के स्वास्थ्य और विकास के लिए मैंने उनके घर पर ही उन्हें पोषण संबंधी खुराक पहुंचानी शुरू कर दी। मेरा मानना है कि सरकार ने मुझे एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी है, और मुझे इसे पूरा करना है।