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महज कक्षा 8वीं तक पढ़ीं रूमा देवी ने बदल दी 22 हजार महिलाओं की जिंदगी

Published - Mon 15, Feb 2021

अभाव में अक्सर लोग टूट जाते हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो हालात से समझौता करने की बजाय उससे लड़कर अपनी तकदीर खुद संवारने में यकीन रखते हैं। कुछ ऐसी ही कहानी है राजस्थान के बाड़मेर की रहने वालीं रूमा देवी की। बचपन से ही तकलीफों का सामना करने वाली रूमा देवी ने अपने अटूट हौंसले के दम पर न केवल अपनी तकदीर बदली, बल्कि 75 गांवों के 22 हजार महिलाओं का जीवन भी संवार कर उन्हें आत्मनिर्भर बना दिया। रूमा देवी के भगीरथी प्रयास के कारण राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद उन्हें नारी शक्ति सम्मान से नवाज चुके हैं। आइए जानते हैं रूमा देवी के संघर्ष और सफलता के सफर के बारे में...

नई दिल्ली। राजस्थान के बाड़मेर में जन्मी रूमा देवी कभी हजारों महिलाओं के सशक्तिकरण का चेहरा बनेंगी यह किसी ने सोचा भी नहीं था। रूमा जब पांच साल की थीं, तब उनकी मां की मौत हो गई थी। इसके कुछ महीनों बाद ही उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली और उन्हें उनके चाचा के पास छोड़ दिया। वह कक्षा आठ में थीं तभी उनकी पढ़ाई छुड़वाकर घर के कामों में लगा दिया गया। वह रोजाना तकरीबन 10 किलोमीटर दूर से पानी भरकर बैलगाड़ी से घर तक लाती थीं। छोटी उम्र में ही उन पर गृहस्थी का पूरा बोझ आ गया था। दिनभर काम करने के बाद रात में बिस्तर पर पड़ते ही कब उस छोटी बच्ची को नींद आ जाती थी पता ही नहीं चलता था। रूमा देवी जब महज 17 साल की थीं तभी उनकी शादी कर दी गई।

शादी के बाद घर बदला, लेकिन हालात नहीं 

रूमा देवी बताती हैं कि शादी के बाद उन्हें उम्मीद थी कि अब जिंदगी पहले से कुछ बेहतर हो जाएगी। लेकिन यहां भी खोटी किस्मत ने पीछा नहीं छोड़ा। ससुराल में आर्थिक तंगी के कारण उन्हें तमाम चीजों से समझौता करना पड़ा। छोट-छोटी खुशियों का गला घोंटना पड़ा। कई बार तो लगा कि शायद खुशी उनके नसीब में है ही नहीं। कई दिनों तक सोचने के बाद एक दिन रूमा देवी ने फैसला किया कि वह परिवार की माली स्थिति को सुधारने के लिए खुद कुछ काम करेंगी।

साल 2006 में दस महिलाओं के साथ बनाया स्वयं सहायता समूह

खुद अपने पैरों पर खड़े होने का फैसला करने के बाद रूमा देवी ने साल 2006 में पड़ोस की दस महिलाओं का ग्रुप बनाकर एक स्वयं सहायता समूह की शुरुआत की। समूह की हर महिला से सौ रुपये लिए गए। इनसे रूमा देवी ने कपड़ा, धागा और प्लास्टिक के पैकेट्स खरीदकर कुशन और बैग बनाना शुरू किया। कुशन और बैग में राजस्थान की पारंपरिक कला की झलक साफ दिखाई देती थी। इस कारण गांव में ही समूह को ग्राहक मिलने लगे और व्यवसाय चल निकला।

दूसरी महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बनाने के लिए बढ़ाया दायरा 

बाड़मेर के मंगला की बेड़ी गांव में रूमा देवी के स्वयं सहायता समूह की कामयबी की चर्चा जल्द ही आस-पास के गांवों में होने लगी। दूसरे गांवों की महिलाएं रूमा देवी से मिलने आने लगीं और उन्हें अपनी परेशानी बताते हुए समूह में शामिल करने की बात कहतीं। तमाम महिलाओं की परेशानी सुनने के बाद रूमा देवी ने अन्य महिलाओं का भविष्य संवारने का फैसला किया। इसके बाद दूसरे गांवों में भी काम शुरू किया। उनके काम को ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान बाड़मेर ने सराहा। वह 2008 में इसकी सदस्य बन गईं। दो साल बाद 2010 में वह इस संस्थान की अध्यक्ष बन गईं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिल चुकी है पहचान 

रूमा देवी के प्रयास के कारण आज तीन जिलों बाड़मेर, बीकानेर और जैसलमेर के 75 गांव की 22 हजार महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो चुकी हैं। नारी सशक्तिकरण के लिए रूमा देवी की ओर से किए जा रहे कार्यों के कारण साल 2018 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद उन्हें नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित कर चुके हैं। रूमा बताती हैं कि उनके ग्रुप से जुड़ी हर महिला प्रति माह 3,000 से 10,000 रुपये तक कमा लेती है। रूमा का एनजीओ महिलाओं को ट्रेनिंग और मार्केटिंग के गुर भी सिखाता है। वह इन महिलाओं के उत्पादों को सिर्फ ग्रामीण ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहचान दिला चुकी हैं। लंदन, जर्मनी, सिंगापुर और कोलंबो के फैशन वीक्स में भी उनके उत्पादों का प्रदर्शन हो चुका है।