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लौह-अयस्क खदानों के बीच तुलसी मुंडा ने उगाई शिक्षा की पौध

Published - Thu 09, Jan 2020

पूरे क्षेत्र में करीब 20 स्कूल चल रहे हैं, जिनसे 20 हजार बच्चे शिक्षित होकर समाज की मुख्यधारा से जुड़ चुके हैं।

tulasi munda

तुलसी मुंडा

आज शिक्षित होने का मतलब अच्छी नौकरी पाना है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि नौकरी करने वाले पढ़े-लिखे गुलाम की तरह होते हैं। शिक्षित युवा शिक्षा का इस्तेमाल कृषि और रोजगार देने के लिए नहीं करते हैं। ये हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। मेरा जन्म (15 जुलाई, 1947) ओडिशा के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में से एक क्योंझर (अब केंदुझार) जिले में गरीब आदिवासी परिवार में हुआ। मेरा बचपन ओडिशा की खदानों में बीता। बचपन में ही मैंने अपने पिता को खो दिया। मेरी चार बहनें और दो भाई काम करने के लिए बाहर जाते थे, जबकि मैं गृहकार्य में अपनी विधवा मां का सहयोग करती थी। मैं पढ़ना चाहती थी, लेकिन मेरे गांव के पास कोई स्कूल नहीं था। और उस जमाने में लड़कियों को शिक्षित करने का सवाल भी पैदा नहीं होता था। थोड़ी बड़ी होने पर मैं भी खदान में पत्थर तोड़ने जाने लगी, वहीं मैंने फैसला किया कि मुझे किसी भी हाल में शिक्षित होना है। जब दूसरे बच्चे खेलते थे या लौह-अयस्क की खदानों में काम करते थे, तब मैं खुद को शिक्षित करना चाहती थी। उस समय मेरी उम्र तकरीबन 12 वर्ष थी, जब मुझे मेरी बहन के साथ अपने गांव से सेरेंडा भेज दिया गया। वहां खदान में काम करने के दौरान मैंने आदिवासी आबादी के बच्चों को शिक्षित करने के लिए एक अनौपचारिक स्कूल शुरू किया। सीखने की इस लगन के चलते ही मेरी मुलाकात मालती चौधरी, रोमा देवी और निर्मला देशपांडे से हुई, जो सामाजिक कार्य करने वाली महिलाओं को शिक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध थीं। मैं उनके साथ शामिल हो गई और देश के विभिन्न हिस्सों में लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक किया। उसी दौरान मैं विनोबा भावे से मिली। मैं उनके भूदान आंदोलन और गरीब ग्रामीणों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए उनकी दृष्टि और प्रतिबद्धता से प्रेरित थी।
परिवार मेरे काम में बाधा न बने, इसके लिए मैंने आजीवन विवाह न करने का फैसला लिया और सेरेंडा में लोगों को शिक्षित करने का कार्य शुरू किया। आर्थिक विपन्नता झेलने और मजदूरी में पूरा दिन गुजारने वाले लोगों को शिक्षित कर पाना इतना आसान नहीं था। वहीं सबसे बड़ी चुनौती गांववालों को अपने बच्चों को खदानों में काम करने के बजाय पढ़ाई के लिए स्कूल भेजने के लिए तैयार करना था। मैंने कुछ घंटों के लिए बरामदे का उपयोग करने के लिए सेरेंडा के स्थानीय प्रधान को राजी कर लिया। चूंकि बच्चों को दिन में छुट्टी नहीं मिलती थी, तो मैंने शाम की कक्षाएं शुरू कीं। धीरे-धीरे जब गांव वालों ने भरोसा करना शुरू किया, तो मैं दिन में भी पढ़ाने लगी। हलांकि सबसे बड़ी समस्या पैसों की थी। इसे हल करने के लिए मैंने सब्जियां बेचनी शुरू की। धीरे-धीरे गांव वाले भी हमारे सहयोग के लिए आगे आने लगे।
बच्चों की संख्या बढ़ने पर मैंने स्कूल बनाने की योजना बनाई। पैसे न होने की वजह से मैंने गांव वालों को श्रमदान के लिए प्रेरित किया और उनके साथ पत्थर काटकर स्कूल बनाने की योजना पर काम किया। छह माह में ही स्कूल बनकर तैयार हो गया। लकड़ी और पत्थर से बनी इस दो मंजिला इमारत का नाम आदिवासी विकास समिति स्कूल रखा गया। पूरे क्षेत्र में अब इस तरह के करीब 20 स्कूल चल रहे हैं, जिनसे अब तक 20 हजार बच्चे शिक्षित होकर समाज की मुख्यधारा से जुड़ चुके हैं। वर्तमान में हमारे पास 81 बच्चों की क्षमता वाला एक हॉस्टल भी है, जो जरूरतमंद को दिया जाता है। आदिवासी विकास समिति स्कूल सिर्फ सेरंडा गांव के बच्चों को ही नहीं, बल्कि आसपास के कई अन्य गांवों के लिए प्राथमिक शिक्षा का केंद्र है। 
- पद्मश्री से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता के विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित।