महज 9 साल की उम्र में ही शांता का विवाह कर दिया गया था। वह ससुराल पहुंचीं तो देखा पूरा गांव गरीबी से जूझ रहा है। गांव के ज्यादातर परिवारों के पास झोपड़ियां ही थीं। कुछ ही के पास कच्चे मकान थे। लोगों को दो जून की रोटी जुटाने के लिए भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी। कई घरों में तो फांके मारने की नौबत थी। परिवार का खर्च चलाने का जिम्मा पुरुष ही उठाते थे, इनमें से ज्यादातर नशे की गिरफ्त में थे। महिलाओं के पास बच्चों की देखभाल करने और चूल्हा-चौका करने के सिवाय कोई आैर काम नहीं था। वर्षों पहले गांव में व्याह कर आईं शांता को यह बातें शुरू से ही अखरती थीं।
नई दिल्ली। समस्यों को लेकर उलाहना देना आसान है, लेकिन इनके समाधान का रास्ता ढूंढना मुश्किल। ऐसे में जो लोग विषम परिस्थितियों में कुछ बेहतर कर ले जाते हैं वे पूरी दुनिया के लिए मिसाल बन जाते हैं। हम यहां एक ऐसी ही महिला के बारे में आपको बताने जा रहे हैं, जिसने न तो कभी हालातों के आगे घुटने नहीं टेके और न ही संसाधनों की कमी का रोना रोया। खुद बाल विवाह की कुप्रथा का शिकार रही इस महिला ने अपनी कड़ी मेहनत और लगन के बल पर न केवल अपनी, बल्कि पूरे गांव की जिंदगी बदलकर रख दी।
हम यहां बात कर रहे हैं, तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से 200 किलोमीटर दूर स्थित कोडापट्टिनम गांव में रहने वाली शांता की। महज 9 साल की उम्र में ही शांता का विवाह कर दिया गया था। वह ससुराल पहुंचीं तो देखा पूरा गांव गरीबी से जूझ रहा है। गांव के ज्यादातर परिवारों के पास झोपड़ियां ही थीं। कुछ ही के पास कच्चे मकान थे। लोगों को दो जून की रोटी जुटाने के लिए भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी। कई घरों में तो फांके मारने की नौबत थी। परिवार का खर्च चलाने का जिम्मा पुरुष ही उठाते थे, इनमें से ज्यादातर नशे की गिरफ्त में थे। महिलाओं के पास बच्चों की देखभाल करने और चूल्हा-चौका करने के सिवाय कोई आैर काम नहीं था। वर्षों पहले गांव में व्याह कर आईं शांता को यह बातें शुरू से ही अखरती थीं। वह कुछ करना चाहती थीं, लेकिन कभी कोई अवसर हाथ नहीं मिला।
आज से 18 साल पहले शांता की चौखट पर एक अवसर ने दस्तक दी। उन्हें एक सरकारी दफ्तर में काम करने का मौका मिला, लेकिन शर्त यह रखी गई कि इसके बदले उन्हें कोई रकम नहीं मिलेगी। हालांकि उन्हें घर से दफ्तर तक आने-जाने का किराया देने पर दफ्तर के अफसर राजी हो गए। शांता ने इस मौके को हाथ से नहीं जाने दिया। वह जिस दफ्तर में जाती थीं वह महिलाओं की स्वयं सहायता समूह बनाकर काम करने में मदद करता था। यहां काम करने के दौरान शांता को लगा कि वह यह काम अपने गांव में भी कर सकती हैं। हालांकि इसमें सबसे बड़ी परेशानी रुपयों की थी।
शांता की यह आशंका सच साबित हुई। उन्होंने गांव की महिलाओं से संपर्क कर जब इस आइडिया के बारे में बात की तो किसी को पहले यह समझ में नहीं आया। हर किसी ने कन्नी काट ली। ऊपर से जब रुपये जोड़ने की बात सामने आई तो सभी ने एकसाथ हाथ खड़े कर दिए। शांता ने गांव की महिलाओं को समझाते हुए हर महीने केवल 10 रुपये जमा करने को कहा, तो महिलाओं ने यह कहते हुए साफ-साफ इनकार कर दिया कि उनके पास इतने पैसे भी नहीं हैं।
शांता को एकबारगी लगा फेल हो जाएगा प्लान
इस घटना के बाद एक बार शांता को लगा कि उनका प्लान फेल हो गया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वह गांव की महिलाओं को कई दिनों तक समझाती रहीं। महिलाओं की पैसे जोड़ने की परेशानी को समझते हुए उन्हें सलाह दी कि हर महिला रोजाना ज्यादा नहीं एक-एक मुट्ठी चावल बचाए, जब 1 किलो चावल जमा हो जाए, तो उसे पास के बाजार में बेच दें। इससे हर महीने 10 रुपये आसानी से जमा हो जाएंगे। यह बात गांव की महिलाओं को पसंद आई और वे ऐसा ही करने लगीं। तकरीबन दो साल की कोशिशों के बाद शांता ने गांव की 20 महिलाओं को 10 रुपये महीने के योगदान से एक स्वसहायता ग्रुप बनाने के लिए राजी कर लिया।
कर्ज देने को तैयार नहीं था बैंक
इस बीच शांता के सामने एक और चुनौती खड़ी हो गई। बैंक वाले न तो उनके स्वसहायता समूह को रुपये देने को तैयार थे, न ही उनकी बातें सुनने को। शांता छह महीने तक कोशिश करती रहीं, लेकिन हर बार उन्हें नाकामी ही हाथ लगी। कोई रास्ता नहीं सूझा तो एक बार फिर, उसे सरकारी दफ्तर के साथियों के पास मदद मांगने पहुंचीं, लेकिन उन्होंने भी अपने हाथ खड़े कर दिए। इस बीच यह सलाह जरूर दी कि वह अकेले बैंक न जाकर समूह की महिलाओं के साथ बैंक जाएं तो उनकी बात जरूर सुनी जाएगी। यह तरीका काम आया और बैंक कर्ज देने को राजी हो गया।
दुग्ध उत्पादन का शुरू किया व्यापार
बैंक से मिले रुपयों से शांता और उनके समूह की महिलाओं ने गायों को खरीदा और दुग्ध उत्पादन का कारोबार शुरू किया। इसमें उन्हें मुनाफा भी होने लगा। महिलाएं समय पर बैंक का पैसा भी जमा करती रहीं, जिससे बैंक को उनके हौसले का अहसास हो गया। इस बीच शांता ने गांव और बाजारों में चलते-फिरते महिलाओं से चर्चा कर अपने साथ जुड़ने के लिए तैयार किया और एक और समूह बना डाला। 20 महिलाओं के इस समूह के लिए शांता ने सिलाई मशीनें खरीदीं और कपड़े सिलने का काम शुरू कर दिया। साथ ही म्यूजिक सिस्टम खरीदकर, गांव में किसी त्योहार, विवाह और अन्य आयोजनों में किराए पर देना शुरू कर दिया।
गांव के पुरुष उड़ाते थे मजाक
शांता ने जब स्वसहायता समूह बनाने का फैसला किया तो गांव के पुरुषों ने यहां तक के उनके पति तक ने उनका मजाक उड़ाया। कई महिलाओं को तो घर में मारपीट तक का सामना करना पड़ा। लेकिन जब शांता के कारोबारी प्लान कामयाब होने लगे, तो सभी मौन हो गए। तकरीबन डेढ़ सौ परिवार वाले गांव की हर महिला खुद शांता से जुड़ने के लिए आने लगी। कारोबार चल निकला, तो पैसे आने लगे। जल्द ही गांव की सूरत भी बदलने लगी। गांव की झोपड़ियां, पक्के मकानों में तब्दील हो गए। घरों में टीवी, फ्रिज, कूलर, बाइक जैसे साजो-सामान आ गए। शांता समेत गांव की अन्य महिलाएं अपने बच्चों को अच्छी और उच्च शिक्षा के लिए राजधानी चेन्नई भेजने लगीं। महिलाओं ने संसाधन जुटाने के साथ ही रुपये भी जोड़ना शुरू किया। आज वह बैंक जो कभी शांता आैर उनके समूह को कर्ज देने को तैयार नहीं था वह दूसरों को उनकी मिसाल देते हैं।
नारी गरिमा को हमेशा बरकरार रखने और उनके चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लाने का मैं हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी। अपने घर और कार्यस्थल पर, पर्व, तीज-त्योहार और सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों समेत जीवन के हर आयाम में, मैं और मेरा परिवार, नारी गरिमा के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करने का संकल्प लेते हैं।
My intention is to actively work towards women's dignity and bringing a confident smile on their faces. Through all levels in life, including festivals and social, cultural or religious events at my home and work place, I and my family have taken an oath to work with responsibility and sensitivity towards women's dignity.