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खेतों में काम करने वाली महिलाओं ने कुछ अलग करने की ठानी और बन गईं फिल्म मेकर

Published - Sun 29, Dec 2019

50 साल से ऊपर की उम्र में भी इनके हौसले देखते ही बनते हैं। पूरी जवानी इन्होंने दिहाड़ी मजदूर बनकर काटी, लेकिन आज ये कैमरापर्सन हैं, प्रोफेशनल फिल्म मेकर हैं। कैमरे के जरिये सिनेमेटोग्राफी जैसा पेशेवर काम कर रही हैं बल्कि पेशेवर पत्रकार भी हैं। आप भी जानिए कि कैसे खेतों में काम करने वाली इन दलित महिलाओं के हाथ में कैमरा आया और ये बन गईं फिल्म मेकर-कैमरा जर्नलिस्ट।

नई दिल्ली।  भारत के आंध्र प्रदेश राज्य से अलग होकर बना भारत का 29वां राज्य है तेलंगाना। इस राज्य में एक जिला है संगारेड्डी, जो नल्लमला जंगल के किनारे पर बसा है। इस जंगल में विशाल यूरेनियम के भंडार पाए जाते हैं। इसी जिले में एक छोटा सा गांव हैं अप्पापुर पेंटा, जहां चेंचू आदिवासी निवास करते हैं। आजादी के 70 साल बाद भी इस जनजाति के विकास के लिए कुछ ज्यादा नहीं किया गया। यहां के ज्यादातर लोगों का जीवनयापन शिकार पर ही निर्भर रहा। चूहे, कुत्तों, गिलहरियों व अन्य जानवरों को खाकर ये लोग जिंदा रहते आए। पर जब इस इलाके को टाइगर्स ‌रिर्जव के तहत ले लिया गया, तब से लोगों को जंगल जाने में मुश्किलें आने लगीं। इस दौरान एक एनजीओ का यहां प्रवेश हुआ, जिसने चेंचू आदिवासियों को खेती-बाड़ी करने के लिए प्रेरित किया। अब यहां बाजरा, लाल चना इत्यादि की खेती में पुरुषों के साथ महिलाएं भी दिहाड़ी मजदूरी कर रही हैं।


 
तीन महिलाओं ने बदल दी गांववालों की तकदीर
गांव की आर्थिक-सामाजिक दशा-दिशा को सुधारने में इसी जिले की तीन अधेड़ उम्र की महिलाओं ने बहुत बड़ी पहल की और आज इन्हीं के ही प्रयत्न से पूरे जिले का नक्‍शा बदल चुका है। अब यहां के लोग कृषि उत्पादन से अपना गुजर बसर करने लगे हैं। ये बेसिमाल महिलाएं हैं- हमनापूर की लक्ष्ममा बी, इप्पलपली की मोलम्मा और मानिगरी की चंद्रम्मा। ये तीनों दलित महिला किसान हैं। ये अपने कार्य से आदिवासी संस्कृति और खेतीबाड़ी की नवीनतम तकनीक को आदिवासी लोगों एवं नई पीढ़ी तक पहुंचा रही हैं। खेतीबाड़ी की तकनीक हो या जैविक खेती के तरीके, यह महिलाएं वीडियो शूट करके अन्य किसानों को नवाचार से अवगत करवाती हैं।
 
कैमरा चलाने का लिया प्रशिक्षण
2001 में जिले में डीडीएस नामक एक एनजीओ आया और इसने यहां के 75 गांवों में काम करना शुरू किया। डीडीएस यानी डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी। यह संस्‍था पिछले 30 सालों से दलित और अन्य हाशिए के वर्गों की महिला किसानों की स्वायत्तता के लिए काम कर रही है। इनका काम लोगों को जैविक खेती की ट्रेनिंग देना, स्वयं सहायता समूहों का गठन, स्वरोजगार के मौके उपलब्ध करवाना और महिला सशक्तिकरण के लिए मीडिया ट्रस्ट बनाना है।  एनजीओ के पास गांव की औरतें पहुंचीं और उन्होंने अपनी समस्याएं डीडीएस के साथ साझा कीं। इसी दौरान उन्होंने अपने खुद का मीडिया सेंटर चलाने की बात रखी। डीडीएस ने तब जिले में सामुदायिक मीडिया स्टेशन बनाया और इसमें दलित समुदाय की 20 महिलाओं को शामिल किया। हमनापूर की लक्ष्ममा बी, इप्पलपली की मोलम्मा और मानिगरी की चंद्रम्मा भी इस संस्‍था में शामिल हुईं। इन्होंने जब संस्‍था में पड़े कैमरों को उठाकर देखना-पलटना शुरू किया तो संस्‍था की मुखिया ने तीनों को कैमरे से कैसे वीडिया बनाया जाता है और दिखाया जाता है,, इसका प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। ये तीनों महिलाएं जब अच्छे से कैमरा चलाना सीख गईं तो इन्हें इलाके बांट दिए गए। इसके बाद से ही महिलाओं को सशक्त करने की इनकी यह यात्रा आगे बढ़ती चली गई।


 
बन गईं फिल्ममेकर और कैमरा जर्नलिस्ट
मोलम्मा कहती हैं, सिनेमेटोग्राफी तकनीक सीखने के बाद उन्हें समाज से बहुत सम्मान मिलता है। पहले वह दिहाड़ी मजदूर और किसान थीं। अब वह प्रोफेशनल फिल्म मेकर और रिपोर्टर हो गई हैं। जब भी वह कैमरे के साथ निकलती हैं तो लोग उन्हें देखते रह जाते हैं। वहीं, लक्ष्ममा जो पहले दिहाड़ी मजदूर थीं, अब वह कैमरा एक्सपर्ट बन चुकी हैं और 15 से ज्यादा देशों की यात्रा कर चुकी हैं। हाल ही में वह एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में मालदीव भी गई थीं।
 
कैसे करती हैं काम
लक्षम्मा बताती हैं, हम लोगो को खेतीबाड़ी की नए तरीके से अवगत करवाते हैं। इसके लिए वीडियो सबसे सही हैं क्योंकि अधिकतर लोग अनपढ़ हैं और इन्हें वीडियो के जरिये अपनी भाषा में समझने में सरलता महसूस होती हैं। इसलिए हम खेतीबाड़ी के विस्तृत वीडियो बनाते हैं जिनमें बीजारोपण से लेकर निराई, गुड़ाई, सिंचाई, फसल की देखभाल एवं फसल को काटकर घर ले जाने तक का प्रोसेस कवर किया जाता हैं। वीडियो शूट करना हो या माइक लेकर साथी गांव वालों और किसानों का इंटरव्यू लेना हो, सारे काम ये महिलाएं बखूबी कर रही हैं। चंद्रम्मा बताती हैं, सामुदायिक मीडिया स्टेशन में हम सब औरतें एकत्र होती हैं और एक-दूसरे की परेशानियों को सुनती-समझती हैं और उनका हल निकालने के लिए मिलकर काम करती हैं। हम अपने साथी किसानों को स्वस्थ तरीके से खेती-किसानी करना सिखाती हैं। लक्ष्ममा कहती हैं, हम यहां बाजरा, लाल चना और बीज वितरण का भी काम देखती हैं। साथ ही किसानों को कृषि प्रथाओं और बीज बैंकिंग के बारे में विस्तार से बताती हैं। जी हां, वीडियो शूट करना हो या माइक लेकर साथी गांव वालों और किसानों का इंटरव्यू लेना हो, सारे काम यह महिलाएं बखूबी कर रही हैं।
 
सारे वीडियो को यूट्यूब पर
ये महिलाएं आदिवासी संस्कृति के उत्सवों एवं आयोजनों को भी डिजिटल फॉर्मेट में सहजने का काम कर रही हैं। कम्यूनिटी मीडिया ट्रस्ट की हेड चिन्ना नरसम्मा कहती हैं, कम्युनिटी से ताल्लुक रखने वाली ये महिला जर्नलिस्ट किसानों से जुड़े हर त्योहार की भी रिकॉर्डिंग करती हैं। जैसे मौसमी फसलों से संबंधित त्योहार पाठा पंताला जतारा और बारिश के दिनों का त्योहार इरुवाका पांडुगा। इन सारे वीडियो को यूट्यूब पर अपलोड किया जाता हैं जिसके जरिये देश के साथी किसानों को मदद मिलती हैं और आदिवासी संस्कृति को करीब से जानने का मौका मिलता हैं।