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महिला सशक्तीकरण : आधा आकाश तुम्हारा है...

Published - Tue 07, May 2019

अपराजिता अभियान

भारतीय राजनीति में लैंगिक न्याय और महिलाओं के सशक्तीकरण की गाथा त्रासदी और विडंबनाओं से भरी है। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने के विधेयक में एक प्रावधान यह भी है कि यह आरक्षण 15 वर्ष बाद समाप्त हो जाएगा। देवगौड़ा शासन में इस विधेयक को 12 सितंबर, 1996 को संसद में पेश किया गया था। बदलाव लाने वाला यह विचार उसके बाईस साल बाद भी वायदे और राजनीतिक पितृसत्ता के बीच फंसा हुआ है।

लैंगिक सशक्तीकरण का मुद्दा एक बार फिर चुनाव प्रचार अभियान में चर्चा में है। इसका श्रेय तृणमूल और बीजू जनता दल को जाता है, जिन्होंने महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ाई है। सोलहवीं लोकसभा लगातार पांचवीं लोकसभा है, जिसने इस कार्य को अधूरा छोड़ दिया। हालांकि इस बीच लोकसभा चुनाव में महिला प्रत्याशियों की संख्या 274 से बढ़कर 668 हो गई है, जबकि राष्ट्रीय दलों द्वारा नामांकित महिलाओं की संख्या 107 से बढ़कर 146 हो गई है। चुनाव लड़ने वाली लगभग दस फीसदी महिलाएं निर्वाचित होती हैं-यदि वे राष्ट्रीय दलों के टिकट पर चुनाव लड़ती हैं, तो यह आंकड़ा बढ़कर 24 फीसदी हो जाता है और अगर वे राज्य की पार्टियों के टिकट पर चुनाव लड़ती हैं, तो यह आंकड़ा 41 फीसदी हो जाता है। वर्ष 1996 के बाद से महिला सांसदों की संख्या 40 से बढ़कर 62 हो गई है, जबकि महिला मतदाताओं की संख्या 28.2 करोड़ से 43.1 करोड़ हो गई है।

लैंगिक सशक्तीकरण का वातावरण जटिल है। भारत को 1963 में पहली महिला मुख्यमंत्री मिलीं-उत्तर प्रदेश में सुचेता कृपलानी। तबसे 15 महिलाओं (जिनमें मायावती, ममता, जयललिता, महबूबा शामिल हैं) ने कश्मीर से कन्याकुमारी और जयपुर से जादवपुर तक कई बड़ी आबादी वाले और जटिल राज्यों का नेतृत्व किया है। भारत को पहली महिला प्रधानमंत्री 1966 में मिली। महिलाओं ने रक्षा मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष की भी भूमिका निभाई और मंत्रिमंडल में आधा दर्जन महिलाएं रही हैं। इसके अलावा स्थानीय एवं राज्य स्तरीय चुनावों में लाखों महिलाएं निर्वाचित हुई हैं।

क्या चुनावों में उनकी जीत ने महिलाओं की स्थिति में कोई बदलाव लाया? मताधिकार और सत्ता राजनीति में महिलाओं का होना जरूरी है, पर बदलाव के लिए यही पर्याप्त नहीं है। लैंगिक न्याय और सशक्तीकरण आर्थिक सशक्तीकरण की संस्था की मांग करते हैं। अब वक्त आ गया है कि भारत महिलाओं के लिए सरकारी नौकरियों में 33 फीसदी पद आरक्षित करे। अभिजात वर्ग के लोग तर्क देंगे कि कोटा समानता का विरोधी है। यह खैरात नहीं, बल्कि आर्थिक विकास को बढ़ावा देने और राजनीतिक सशक्तीकरण की स्थिरता सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण नीतिगत सुधार है। यह सुझाव मैंने फरवरी, 2014 में दिया था, पर 2019 में इसकी जरूरत अधिक है।

भारत अर्थव्यवस्था से महिलाओं के बहिष्कार की त्रासदी को नकार नहीं सकता। नए भारत की कहानी 1991 के उदारीकरण के बाद से ही शुरू होती है। 1990 में कार्यबल में महिलाओं का अनुपात 35 फीसदी था, जो 2018 में घटकर 27 फीसदी रह गया। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन/विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, 190 देशों में भारत 171वें स्थान पर है। उत्तर प्रदेश में कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी मात्र 25 फीसदी है और शहरी क्षेत्रों में तो सिर्फ 15 फीसदी है। उत्तर प्रदेश में मुश्किल से 11 फीसदी महिलाएं ही वेतनभोगी नौकरी करती हैं। इस मामले में भारत की रैंकिंग ओमान, लीबिया और पाकिस्तान के बराबर है, जबकि वह बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार, मलयेशिया और ब्रिक्स देशों से पीछे हैं। तर्क दिया जा सकता है कि कृषि और गरीब अर्थव्यवस्थाओं में महिला भागीदारी का उच्च स्तर पर है। लेकिन भारत चीन (122 स्थान), स्वीडन (120 स्थान), सिंगापुर (118 स्थान), जर्मनी (88 स्थान) और यहां तक कि जापान से (53 स्थान) भी पीछे है।

भारत के लिए ज्यादा चिंतनीय बात यह है कि 15 से 24 आयु वर्ग में महिला श्रम भागीदारी 1990 के 30 फीसदी के मुकाबले घटकर 16 फीसदी रह गई है। इस पर एक भ्रामक तर्क दिया जाता है कि आज ज्यादा महिलाएं उच्च शिक्षा हासिल करती हैं। इस तर्क का एक पैमाना है कि कुल कार्यबल में से कितनी महिलाएं उच्च शिक्षा ग्रहण करती हैं और उन लोगों के बारे में क्या विचार है, जिन्होंने पिछले दशक में स्नातक किया था? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या यह सिद्धांत स्वीडन, चीन या कोरिया या जर्मनी के लिए सही है, जो क्रमशः 56, 45 और 48 फीसदी महिला श्रम भागीदारी का दावा करता है?

 

अर्थव्यवस्था से महिलाओं के बहिष्कार का हमें आर्थिक खामियाजा भुगतना पड़ा है। आर्थिक सर्वे के मुताबिक 2.95 करोड़ लोग नियोजित क्षेत्र में काम करते हैं, जिनमें 60.05 लाख महिलाएं हैं। इनमें से भी 31 लाख महिलाएं सार्वजनिक क्षेत्र में और 29 लाख निजी क्षेत्र में कार्यरत हैं। यह कोई रहस्य नहीं है कि जब ज्यादा महिलाएं काम करती हैं, तो अर्थव्यवस्था का विकास होता है। चीन की जीडीपी में महिलाओं का योगदान लगभग 41 फीसदी, अमेरिका में 40 फीसदी, पश्चिमी यूरोप में 35 फीसदी है, जबकि भारत में 17 फीसदी ही है। वंचना के बुरे समाजिक परिणाम भी होते हैं। संयुक्त राष्ट्र की 2018 की लैंगिक अनुपात रिपोर्ट बताती है कि लिंगानुपात के मामले में भारत 201 देशों की सूची में 191वें स्थान पर है।

सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का विरोध संविधान के अनुच्छेदों की व्याख्या करके की जाएगी। पर यह आरक्षण नौकरियों के लिए मौजूदा आरक्षण के भीतर दिया जा सकता है-मंडल तालिका के अनुसार सभी चीजें समान हैं, इसलिए महिलाओं के लिए 33 फीसदी नौकरियां आरक्षित की जा सकती हैं। इससे जाति की गणना नहीं बदलेगी, पर महिलाओं के लिए अवसर बढ़ जाएंगे। निश्चित रूप से इस पर मुकदमेबाजी होगी और सुप्रीम कोर्ट में, जिसने दो महत्वपूर्ण मामलों में महिलाओं के पक्ष में फैसला दिया है, लैंगिक संवेदनशीलता पर उसकी परीक्षा होगी। इन सबके विफल होने पर इस कानून को न्यायिक समीक्षा से रोके रखने के लिए संविधान की नौवीं अनुसूची में रखने का विकल्प है। उम्मीद है कि इसकी जरूरत नहीं होगी। आधा आकाश महिलाओं का है। क्या उन्हें सशक्त किए बिना राजनीति कुछ सार्थक कर सकती है?

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मताधिकार और सत्ता राजनीति में महिलाओं का होना बहुत जरूरी है। पर अब वक्त आ गया है कि सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था हो। आर्थिक स्वतंत्रता ही उन्हें शक्तिशाली बनाएगी।

शंकर अय्यर, आईडीएफसी इंस्टीट्यूट में विजिटिंग फेलो